तुम्हें याद हो कि न याद हो 

तुम्हें याद हो कि न याद हो 
कमलेश भारतीय।

सन् 1984 की बात है । मैं लघुकथाकार के रूप में ज्यादा सक्रिय था और एक संग्रह तैयार किया : मस्तराम जिंदाबाद । लघुकथा सन् 1970 से नयी विधा के रूप में अपनी जगह बना रही थी और बड़े साहित्यकार इसे कभी सलाद की प्लेट तो कभी चुटकुला कह कर या अखबारों की घटना मात्र कह कर मज़ाक उड़ाते । 
ऐसे में कोई प्रकाशक लघुकथा संग्रह प्रकाशित करने का जोखिम क्यों लेता ? सोच  विचार के बाद ध्यान आया  तारिका और कहानी लेखन महाविद्यालय के संचालक डाॅ महाराज कृष्ण जैन जी का । मैं उनके पास अम्बाला छावनी पहुंच गया और अपनी पांडुलिपि उनके सामने रखी । 
डाॅ जैन मुस्कुरा दिए और बोले - कमलेश जी । मैंने तो प्रकाशन छोड़ दिया । आप मेरी हालत देख रहे हो । व्हील चेयर पर हूं । पुस्तक बेचना बड़ा मुश्किल काम है ।
-आप एक काम करेंगे ? 
-बताओ ? 
- इस पुस्तक के संपादक बनेंगे ? 
- वो कैसे ? 
-आप पुस्तक प्रकाशन करवाने का काम जानते हो न ?
- बिल्कुल । पुस्तक सुंदर से सुंदर बना सकता हूं पर बेचने का काम टेढ़ी खीर है । 
- बस । आप संपादक बन जाइए । पांडुलिपि छोड़े जा रहा हूं । आप इसे देखिए और संपादक की तरह फैसला कीजिए कि क्या  प्रकाशन के योग्य है भी या नहीं ?  प्रकाशन का सारा पैसा मैं ही लगाऊंगा । इस विधा को लोकप्रिय करना है । सारी प्रतियां भी मैं ही ले लूंगा । आपका सिर्फ प्रकाशन का पता होगा ।
डाॅ महाराज कृष्ण जैन सहर्ष तैयार हो गये । कुछ दिन बाद  उनका पत्र आया कि सचमुच यह संग्रह लघुकथा विधा के क्षेत्र में चर्चित होगा । आप इसे प्रकाशित कर सकते है । मैंने सारा संग्रह  देख लिया  है ।
फिर मैंने डाॅ जैन पर ही भूमिका लिखने की जिम्मेदारी डाली । यह कह कर कि परंपरागत तौर पर मेरी सिर्फ प्रशंसा यानी वाह वाह ही न हो बल्कि लघुकथा में मैं कहां खड़ा हूं , इसका मूल्यांकन भी कीजिए । मेरी जगह भी बताइये । आठ पृष्ठ की भूमिका में डाॅ ने जहां जरूरी लगा मेरी बखिया भी उधेड़ कर रख दी और आलोचना भी की । आखिरकार एक हजार प्रतियों का मेरा पहला लघुकथा संग्रह पेपरबैक संस्करण के रूप में प्रकाशित हो गया , जिसमें डाॅ जैन ने अपने अनुभव के आधार पर दो  सौ प्रतियां सजिल्द  भी प्रकाशित कर मुझे दे दीं । उस भले वक्त में कुल चौबीस सौ रुपए में मेरा संग्रह एक बोरी में बंद  जिन्न की तरह मेरे पास था । मैं स्कूल में प्रिंसिपल था तो एक कर्मचारी को साथ लेकर अम्बाला छावनी पहुंचा  और डाॅ जैन का मुंह मीठा करवा अपनी पुस्तक संपादक से ले चला । 
अब समस्या थी कि इसका वितरण कैसे करना है ? एक हजार प्रतियां । कैसे लोगों तक पहुंचाओगे ? मेरे स्कूल का क्लर्क महेंद्र घर आया । हमने दलित पिछड़े बच्चों की छात्रवृत्ति सरकारी खजाने से निकलवाने जाना था । वह जालंधर से रेल पर आता था । उस दिन खटकड़ कलां की बजाय सीधे नवांशहर ही उतर का सुबह सुबह मेरे घर पहुंच गया था । इसलिए उसका नाश्ता तैयार करवा रखा था ।
जैसे ही महेंद्र को नाश्ता परोसा तो सामने रखी बोरी  में बंद पुस्तकों पर उसकी नज़र गयी । पूछा कि सर , इसमें क्या है ? मैंने बताया कि इसमें पुस्तक मस्तराम जिंदाबाद है । 
-फिर  कैसे दे रहे हैं आप ?
-कहां ? मैंने तो बोरी खोली भी नहीं । किसे देने जाऊं ?
- अरे सर । आप मुझे खोलने दो । महेंद्र ने नाश्ते के बाद बोरी खोली और  उसमें में से सजिल्द  बीस प्रतियां उठा लीं । हमने सरकारी खजाने से पैसे निकलवाए और स्कूल खटकड़ कलां पहुंच गये । शाम की ट्रेन से महेंद्र  जालंधर चला गया ।
कुछ दिन बाद महेंद्र ने मुझे दो सौ रुपये देते कहा कि सर, ये आपकी बीस पुस्तकों के पैसे । मैं हैरान और पूछा कि यह तुमने कैसे किया ?
महेंद्र ने बताया कि रेल में जालंधर से  चल कर कई सरकारी स्कूलों के मेरे जैसे क्लर्क सफर करते हैं । हम इकट्ठे ताश खेल कर समय बिताते हैं । मैने उन साथियों से  कहा कि यह हमारे प्रिंसिपल साहब की लिखी पुस्तक है । इसे अपने स्कूल की लाइब्रेरी में आधे मूल्य पर लगवा दो । बीस रुपए प्रिंट है । आप दस में ही प्रति लगवा दो । बस । चार पांच स्कूलों में चार चार पांच प्रतियां ले ली गयीं । बिल मैने बना दिए और पैसे मिले तो आपको दे दिए । 
मैं महेंद्र को देखता ही रह गया । वह फिर बोला - सर । पैसे आपके लगे हैं और मैं तो सिर्फ सहयोग कर रहा हूं । आप जिन स्कूलों या काॅलेज में पढे हैं क्या वे संस्थाएं आपकी पुस्तक लेने से मना कर देंगी ? आप मुझे साथ ले चलिए । अरे । यह तो मेरा गुरु बन गया । 
सचमुच हम उन स्कूलों में गये जहां मैने शिक्षा पाई थी । सभी प्रिंसिपल ने चार चार प्रतियां तुरंत लेकर पैसे दे दिए । अपने काॅलेज में भी । 
फिर नवम्बर आ गया । तब डाॅ जैन ने सुझाव दिया कि कमलेश नववर्ष के कार्ड भेजने की बजाय इस बार तुम अपनी पुस्तक उपहार  में  भेज दो । मैंने मोहर बनवाई उपहार भेंट की और तीन सौ लिफाफे खरीद कर ले आया । बस । लग गया उपहार में लेखकों संपादकों के नाम पोस्ट करने । नये साल के आने तक अनेक दूर दराज की कुछ नयी और कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा देख खुद डाॅ जैन ने मुझे बहुत सारी कतरन भेज कर लिखा कि तुमने तो मेरा बंद पड़ा प्रकाशन चला दिया । लेखक मेरे से झगड़ा कर रहे हैं कि आप कह रहे हैं कि मैंने प्रकाशन बंद कर रखा है और कमलेश भारतीय की पुस्तक इतनी चर्चित हो रही है । यह कैसे ? तुम तो  मेरे सुझाव पर ऐसे चले कि गुरु को भी पीछे  छोड़ गये । मुझे बहुत खुशी है । बहुत गर्व है तुम पर । 
इस तरह पहले लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद से मैंने सीखा पुस्तक पेपरबैक में होनी चाहिए और प्रिंट से आधा मूल्य लिया जाए तो सस्ती पुस्तक को हर व्यक्ति खुशी खुशी खरीद लेता है। पेपरबैक पुस्तक उस जमाने में पांच ही रुपये में दी । मेरे सरीन परिवार के हर घर ने पांच पांच रुपये में मस्तराम जिंदाबाद खरीद कर  मुझे प्रोत्साहित किया और इस तरह तीन सौ पुस्तक मेरे शहर नवांशहर के ही सरीन परिवारों में आज भी सहेजी हुई है  उन्हें खुशी है कि उनका बेटा लेखक बन गया । आर्टिस्ट और आजकल ट्रिब्यून समूह के कार्टूनिस्ट संदीप  जोशी का आभार जिसने मस्तराम जिंदाबाद का आवरण बनाया और खुद  ही चंडीगढ़ से अम्बाला छावनी  जाकर डाॅ महाराज कृष्ण जैन को सौंप कर आया । उसका नाम प्रकाशित है । मेरे साथ ही रहेगा ।
यही प्रयास वर्षों बाद मैंने नयी पुस्तक यादों की धरोहर के  साथ किया । हिसार में  एक एक मित्र ने मेरी प्रति सम्मान से ली और बाकायदा राशि दी । दूरदराज के मित्रों ने सहयोग दिया । नवांशहर में अब भी छोटा भाई प्रमोद भारती पुस्तक पहुंचा रहा है । इस तरह एक बार फिर मेरा पहला संस्करण चार माह में सबके हाथों तक दिल्ली के पुस्तक मेले से पहले पहुंच गया । बिना किसी आर्थिक नुकसान के । 
वाह । पहली  प्रति पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा हुड्डा के हाथों सौप कर दिल्ली में पंद्रह सितंबर को उनके जन्मदिन पर विमोचन करवाया और आज अंतिम  प्रति  पंचकूला  के मित्र प्रदीप राठौर  के नाम कोरियर से जा रही है । जिसे लिखा भी कि इसमें साथ ही यादों की धरोहर की यात्रा संपन्न हो रही है । 
मित्रो , आज सचमुच मैं मुक्त हूं और मेरी पत्नी नीलम पूछ रही है कि अब क्या करोगे ? इतने व्यस्त कि  रोज़ आधी रात बैठकर पैकेट बनाते थे । बेटी रश्मि गोंद लगाती थी और मेरे प्रिय मित्र  राकेश मलिक पोस्ट ऑफिस या कैरियर तक छोड़ने  जाते थे । 
मैंने कहा कि मैं आदरणीय डाॅ जैन और  अपने उस भूले बिसरे क्लर्क महेंद्र को गुरुमंत्र देने पर मन ही मन सुबह सवेरे नमन् कर रहा हूं । मुझे पुस्तक का प्रकाशक नहीं सिर्फ संपादक चाहिए ।
रामदरश मिश्र की पंक्तियों से बात खत्म कर रहा हूं : 
मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी 
मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे ।
जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर 
वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे ।
बाॅय यादों की धरोहर । जल्द नये संस्करण के साथ मिलेंगे । कुछ नये संस्मरण जोड़ कर । कुछ बढ़े पृष्ठों के साथ ।
- कमलेश भारतीय