डॉ अजय शर्मा के शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे उपन्यास `हिंदुस्तानी मेमने' का एक और अंश
प्रस्तुत है, जालंधर (पंजाब) से संबंधित प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ अजय शर्मा के शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे उपन्यास `हिंदुस्तानी मेमने' का एक और अंश:
पाकिस्तान से लड़ाई खत्म हुए भी तीन-चार साल बीत गए थे। उस लड़ाई ने देश के भीतर कई तरह की चिंगारियों को हवा दे दी थी। इस बीच हिंदुस्तान का एक और भू-भाग बंगला देश के नाम से अस्तित्व में आ गया था। फौजियों को इधर-उधर ले जाने का काम चल रहा था। सब कुछ फिर से ठीक तरह चलने लगा था। देखते ही देखते भारत का राजनीतिक माहौल खराब होना शुरू हो गया था। देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बहुत से सैनिक वापस कर दिए थे। राजनीति का बाजार गर्म था। इस तरह के कई कारण थे, जिसके चलते इंदिरा गांधी का ग्राफ गिरने लगा था। कहते हैं, जब बुरे दिन आते हैं, इंसान गलतियों से सबक नहीं लेता, बल्कि गलती पर गलती करनी शुरू कर देता है। ऐसा ही कुछ-कुछ कांग्रेस सरकार कर रही थी। इस बीच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी घोषित कर दी थी। हर कोई त्रस्त था, लेकिन बोलने का अधिकार किसी को नहीं था। अगर कहूं कि लोकतंत्र की हत्या हो गई थी, गलत नहीं होगा। हमारे पास भी सारी खबरें सैंसर होकर आती थीं। प्रेस पर सारा कब्जा संजय गांधी ने कर लिया है। इंद्र कुमार गुजराल सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे।
एक दिन हमारे दफ्तर आए, पता चला जलंधर के बारे उनके मन में बहुत-सी यादें हैं। उन्हें यह जानकर भी बड़ी खुशी हुई, मैं जलंधर का रहने वाला हूं और आजाद हिंद फौज का फौजी रहा हूं। वह सुन कर प्रसन्नता से बोले, 'जय हिंद।’
मैंने भी तुरंत कहा, 'जय हिंद।’
जाते समय कह गए, 'कभी घर आना, जलंधर के बारे में बातें करेंगे। मुझे जलंधर से बहुत लगाव है।’
यही कारण है, कभी-कभार मैं उनसे मिलने के लिए उनके घर चला जाता था। मुझे उनके घर में जाने के लिए कोई रोक-टोक नहीं थी।
एक दिन, शाम ढलने के बाद, मैं उनके घर गया, वह बहुत उदास बैठे थे।
मैंने पूछा, 'क्या हो गया सर? जलंधरी कभी उदास नहीं होते। जलंधरियों को नाथों से वरदान मिला हुआ है। वैसे तो जलंधर के नाम पर कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं। एक किंवदंती यह है कि जलंधर का नाम जलंधर नाथ के नाम से जुड़ा हुआ है। इस नाम को नाथों की परंपरा से जोड़ कर देखा जाता है। गोरख नाथ, बाबा बालक नाथ इसी परंपरा से आते हैं।’
मेरी बात सुन कर तुरंत बोले, 'नाथ परंपरा गुस्सैल मानी जाती है। अपने स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए किसी से भी भिड़ जाती है।’
मैंने तुरंत कहा, 'बात आपकी सही है, आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं?’
उन्होंने मेरी बात सुनते ही कहा, 'आज नाथ परंपरा, मेरे सिर पर चढ़ कर बोलने लगी। उसी के चलते, आज ही सुबह एक पंगा हो गया है।’
मैंन तुरंत पूछा, 'क्या हो गया सर?’
उन्होंने तुरंत कहा, 'हुआ कुछ खास नहीं। अगर देखा जाए, बहुत खास था।’
मैंने उत्सुकता वश पूछा, 'सर पता चले क्या हुआ है? अगर मैं आपके किसी काम आ पाऊं, अपने-आप को सौभाग्यशाली समझूंगा।’
वह मंद-मंद मुस्कुराए और बोले, 'असल में तुम्हारे हाथ में कुछ है नहीं। हाथ में मेरे भी कुछ नहीं है। जो कुछ मेरे हाथ में था, मैंने कर दिया।’
उनकी बात सुन कर मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और मैंने कहा, 'सर, अब सुनने को मन कर रहा है?’
गुजराल जी बोले, 'मैं सुबह ग्यारह बजे के आसपास इंदिरा गांधी जी से मिलने गया था, क्योंकि मुझे बुलाया गया था। मैं यह भी नहीं जानता था, बुलाया क्यों है? वहां जाकर पता चला, इंदिरा जी का एक भाषण ब्रॉडकास्ट न होने के चलते, सब लोग मुझ से नाराज थे। मेरी बदकिस्मती थी या संजय गांधी के ग्रह-नक्षत्र ठीक नहीं थे, नहीं जानता। मेरे पहुंचने तक, वह निकल चुकी थीं। आप तो जानते हैं, आजकल, संजय गांधी ने प्रेस का सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले रखा है।
संजय गांधी ने मुझे हिदायत देते हुए कहा, 'आकाशवाणी के बुलेटिन प्रसारण होने से पहले मुझे दिखाए जाएं।’
मैंने तुरंत कहा, 'प्रसारण होने से पहले, मैं खुद नहीं देखता, आपको दिखाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।’
मेरी बात से शायद उसके अहम् को चोट पहुंच गई।
वह गुस्से से आग बबूला हो गया और बोला, 'तुम्हारी यह मजाल, तुम संजय गांधी से जुबान लडा़ओगे। सारा भारत मेरे इशारों पर नाचता है। इन दिनों वे लोग भी मेरे इशारों पर नाचते हैं, जिनके इशारों पर दुनिया नाचती है। देखा नहीं, फिल्म इंडस्ट्री के गाने-बजाने वाले लोग भी, मेरे इशारों पर नाचने लगे हैं।’
उसकी बात सुन कर मेरे अंदर वही जलंधर नाथ वाला योगी जाग गया और मैंने झट से कहा, 'संजय गांधी जी, आपके इशारे पर सारा संसार नाच सकता है, लेकिन मैं नहीं। मैं आपकी मां का मंत्री हूं, आपका नहीं।’
उसने मेरी बात सुनते ही कहा, 'ऐसे नहीं चलेगा। अभी मैं प्यार से बात कर रहा हूं। तुम्हें मेरे गुस्से का पता नहीं है।’
मैंने भी तुरंत कहा, 'जब तक मैं हूं, ऐसे ही चलेगा। देश आपके इशारों पर क्यों चलेगा? वैसे भी प्रधानमंत्री की कुर्सी आपकी मां को विरासत में मिली है। काबिल लोगों की पार्टी में कमी नहीं थी। भविष्य में आपको मिले न मिले, क्या कह सकते हैं? लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता। जिस दिन जन की आवाज गूंजी, उस दिन मुंह के बल गिर जाएंगे। संविधान को सूली पर चढ़ा कर राज नहीं किया जा सकता। भविष्य में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।’
मेरी बात सुन कर वह भड़क उठा और गुस्से में दांत पीसता हुए बोला, 'लोकतंत्र में ऐसे ही होता है। इस गद्दी को बचाने के लिए इतना बड़ा खेल किया है, तुम अब भी लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हो। लोकतंत्र नाम की मैना को आईने के पिंजरे में बंद कर दिया है। उसे हर तरफ अपनी शक्ल दिखेगी। आजाद होने की कोशिश में जगह-जगह चोंच मारेगी। अंत में घायल होकर, खुद ही बेहाल हो जाएगी। एक समय ऐसा आएगा, उसमें चोंच मारने की शक्ति ही नहीं बचेगी। हमने यही हाल लोकतंत्र का किया है। अभी तो आगाज है, अंजाम देख कर रूह कांप उठेगी।’
मैं उसकी बात का मतलब नहीं समझ पाया था, वह कहना क्या चाहता था? लेकिन वह बात करता हुआ, बद्तमीजी पर उतर आया था। बोलते-बोलते उसकी जुबान कांपने लगी थी।
उसकी बकवास सुनने की मुझ में हिम्मत नहीं थी। मैंने सुनी और सुन कर चुप रहा था। मैं वहां से उठा और घर आ गया।
इस बीच चाय मेज पर पड़ी-पड़ी ठंडी हो चुकी थी। गुजराल साहब ने चाय की प्याली बिना प्लेट के उठाई और एक ही सांस में पी गए।
प्याली को प्लेट में रखते हुए बोले, 'मुझे भी अभी-अभी खबर मिली है, मेरी जगह पर विद्याचरण शुक्ल को नया सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया गया है।’
उस बात के बाद हम दोनों में खामोशी पसर गई। इतने में उनके फोन की घंटी बजी और वह जल्दी से उठ कर फोन की तरफ जाने लगे। जैसे ही वह कुर्सी से उठे, मैं भी जल्दी से उठा और उनसे विदा लेकर घर की तरफ निकल पड़ा।
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मैं वहां से उठ कर घर आ गया था। मुझे गुजराल जी की घटना ने बहुत उदास कर दिया था। जलंधरी होने के नाते, मुझे सब कुछ अपने साथ घटता हुआ नजर आने लगा। उन्होंने एक बार बताया था, 'जलंधर में व्यंग्यकार, दीपक जलंधरी से उनकी गहरी दोस्ती है।’
मैंने उनकी बात सुन कर तुरंत कहा था, 'दीपक जलंधरी, मुझे भी बड़ी अच्छी तरह से जानते हैं।’ इसी के चलते हमारी नजदीकियां बढ़ गई थीं। सारा दफ्तर हैरान था, अजीत के पास कौन-सी गिद्दड़ सिंघी है, जो उसने मिनिस्टर साहब को सुंघा दी है। जब मैं वहां से उठ कर वापस लौट रहा था, तब सोच रहा था, बाजी पलट रही है। इस तरह लोकतंत्र का गला घोंट कर लंबी रेस का घोड़ा नहीं बना जा सकता। मैंने जिंदगी में बहुत बाजियां पलटते हुए देखी हैं। अचानक मुझे मलाया से वापस लौटने वाली, आखिरी घटना याद आ गई। किसी ने उम्मीद नहीं की थी, बाजी पलट जाएगी, लेकिन पलट गई थी।
मुझे आज भी याद है, हिंदुस्तान की धरती पर, जब पहला कदम रखा, तब सब लोगों ने मां की मिट्टी का तिलक किया और भगवान का धन्यवाद किया।
जब सारी योजना बन गई थी, तब जापानी अफसरों के साथ तय हुआ था, हिंदुस्तानी सैनिक सारी कमान संभालेंगे। जापानी केवल हिंदुस्तानियों की सहायता के लिए साथ रहेंगे। जिस दिन हमने कूच करना था, उस दिन सबके माथे पर तिलक किया गया। हिंदुस्तान की मिट्टी को माथे पर लगा कर, सबको मणिपुर की तरफ रवाना किया गया। जापान भी चाहता था, दूसरे विश्व युद्ध के चलते फिरंगी इस रास्ते से आगे न बढ़ पाएं। इसी के चलते यह फैसला लिया गया था, जापान की फौज भारत पर मणिपुर के इंफाल पर, किसी तरह से कब्जा कर ले। इससे युद्ध के परिणाम बदल सकते हैं। हम लोगों ने आगे बढ़ते हुए कोहिमा के छोटे से गांव पर हमला किया और फिरंगियों को वहां से खदेड़ दिया था, लेकिन वहां युद्ध भयंकर हुआ था। उस युद्ध में कितने लोग मरे, इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल था।
नेता जी का मानना था, 'अगर हम लोग वहां कब्जा करने में कामयाब हो जाते हैं, हिंदुस्तानियों के मन में आजादी का बिगुल बजा देंगे। विदेशी धरती पर, हम लोग जितने मर्जी सांप मार कर फेंक दें, लेकिन जब तक सपेरा नहीं मरता, तब तक कुछ नहीं हो सकता।’
असल में जापान और हिंदुस्तानियों के अपने-अपने स्वार्थ इस में छुपे हुए थे। दोनों एक-दूसरे के पूरक बन कर, बर्मा से होते हुए इंफाल की तरफ चले थे।
जापानियों का एकमात्र मकसद था, किसी तरह से मणिपुर के इंफाल पर कब्जा कर लिया जाए। वे जानते थे, अगर फिरंगियों की सेना की नाक में नकेल डालनी है, तो उसका पहला पड़ाव यही है। ऐसा करने से उनकी इस तरफ आने के लिए तालाबंदी हो जाएगी। अगर ऐसा हो गया तो जापानी, फिरंगियों की आपूर्ति की हर चीज को जब्त करने में सक्षम हो जाएंगे। इस मामले में हिंदुस्तान और जापान का मत एक था, क्योंकि दोनों देशों का निशाना एक था।
नेता जी का मानना था, 'अगर ऐसा हो गया तो ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय जनता में विद्रोह का बिगुल बजाया जा सकेगा। ऐसा करके हिंदुस्तानियों को अंग्रेजी हुकूमत को देश से जल्द से जल्द निकाल देने का संदेश देना जरूरी है। सब कुछ ठीक चल रहा था। इस बीच 14 अप्रैल 1944 को आजाद हिंद फौज के सैनिक कर्नल शौकत अली मलिक ने, पहली बार हिंदुस्तान की जमीन पर हिंदुस्तान का झंडा फहराया था। कर्नल मलिक ने कुछ मणिपुरी और आजाद हिंद फौज के साथियों की मदद से मणिपुर स्थित मोईरांग नामक जगह को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त करवा कर राष्ट्रीय ध्वज फहराया था। हालांकि अंग्रेजी हुकूमत से इसे मुक्त करवाना, टेढ़ी खीर से कम नहीं था, लेकिन जापानियों की मदद से यह संभव हो पाया। यह उपलब्धि, हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी। आज सोचता हूं, तो लगता है, यही वह गाथा है, जो समर गाथा से विजय गाथा में बदल गई। 'मोईरांग’ की धरती ऐसी धरती है, जिस पर आजाद हिंद फौज ने पहली बार अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त करवा कर अपनी हुकूमत का परचम लहराया था। आजाद हिंद फौज की हुकूमत की घोषणा की खबर लगातार कई दिनों तक रेडियो टोक्यो एवं रेडियो ताशकंद द्वारा की जाती रही। एक दिन आजाद हिंद फौज की कामयाबी को देख कर जवानों को संबोधित करते हुए नेता जी ने कहा था, 'बहादुरो, यदि तुम इसी तरह डटे रहे, वह दिन दूर नहीं, जब लाल किला भी हमारी आवाज सुनने के लिए मजबूर हो जाएगा और हमें स्वीकार कर लेगा।’
नेता जी की सिंह गर्जना से, सभी फौजियों की नसों में खून खौलने लगा था। रेडियो सुन रहे फौजियों ने सुनते ही कहा था, 'आपके मुंह में घी-शक्कर।’
'मोईरांग’ विजय के इस अवसर पर नेताजी ने अपने रेडियो से कर्नल शौकत मलिक की बहादुरी की तारीफ की थी। आजाद हिंद फौज की ओर से विशिष्ट तमगा प्रदान करने की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था, 'यह दिन इतिहास के पन्नों पर सुनहरी अक्षरों में लिखा जाएगा।’
मोईरांग विजय के बाद आजाद हिंद फौज का हौसला आसमान को छूने लगा था।
कहते हैं खुशी को कई बार नजर लग जाती है। कुछ ऐसा ही हुआ था, उस समय। यह हुकूमत लगभग तीन महीने तक रही। गोरे कोव्वे ने सौ से भी अधिक जहाजों से बमबारी करके, इसे फिर से अपने कब्जे में ले लिया था।जब कोई विपत्ति की घड़ी आती है, सारे कोव्वे एक ही पेड़ पर आकर बैठ जाते हैं और कांव-कांव करने लगते हैं। इसके चलते, हिंदुस्तान के हौसले बुलंद थे, लेकिन जापानियों के मन में अहंकार आ गया था। वही अहंकार सबके पतन का कारण बना।
उनके अफसर हमेशा कहते, 'जैसे मलाया में इनका सफाया किया था, वैसे ही कोहिमा और इंफाल से भी इन्हें भगा देंगे।’
इसके बावजूद, हुआ सब कुछ विपरीत। अंगेरजों ने यहां बहुत ज्यादा तैयारी की हुई थी। उसका नतीजा यह हुआ, जापानी सेना को इतना नुक्सान हुआ, जितना उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। इसका सीधा असर उनकी सैन्य क्षमता पर पड़ा और उनकी सैन्य क्षमता कमजोर होती चली गई। उसी कमजोरी के चलते उनकी हर चीज पर असर पड़ा। जापानी फौज की स्थिति बद से बद्तर होती चली गई। जिसे वह जीत को सुनिश्चित मान रहे थे, वही उनकी हार का कारण बन गई। हम लोग पहले ही आगे बढ़ चुके थे। खराब मौसम के चलते, हम लोग अपनी तरह का संघर्ष कर रहे थे। कुल मिला कर बर्मा अभियान को मुंह की खानी पड़ी। कुछ अफसरों का मानना था, पर्ल हर्बर हमला, सबसे खराब रणनीति का हिस्सा था। उसी ने दूसरे विश्व युद्ध के समीकरणों को बदल दिया था। जब फौजियों को खाने के लिए भोजन मिलना बंद हो जाए, ऐसे में आधा युद्ध आप पहले ही हार जाते हैं। खाद्य आपूर्ति बंद होने से, उनका मनोबल आसमान से सीधा धरती पर गिर गया था। उन्हें लगने लगा था, उनका अभियान कभी सफल नहीं होगा। मुझे जापानी अफसरों की शक्ल संजय गांधी से मिलती हुई नजर आने लगी। जापानियों की तरह, उसमें भी अपनी मां की कुर्सी का अभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था। बचपन से पाठ पढ़ते आए हैं, अभिमान का सिर नीचा। किसी ने ऐसा नहीं सोचा था, इमरजेंसी केवल इंदिरा गांधी नहीं, बल्कि पूरी कांग्रेस की जड़ों में बैठ जाएगी, और उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी।
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इस दौरान इंदिरा गांधी को लेकर कई तरह के सवाल विपक्ष ने उठाने शुरू कर दिए थे। जो सवाल तेजी से उठ रहा था, वह इंदिरा गांधी का अफगानिस्तान के दौरे के दौरान बाबर की कब्र पर जाना था। इस बात को विपक्ष ने अच्छी तरह से उछालना शुरू कर दिया था। कई अखबारों में इस बात का जिक्र होना शुरू हो गया था। इस बीच एक पी.टी.आई. का पत्रकार रेडियो स्टेशन रिकार्डिंग के लिए आया, जो इंदिरा गांधी से बहुत दुखी था। वह पहले भी कई बार आया था, मुझे अच्छी तरह से जानता था।
जब मैंने उससे बात की, तो वह बोला, 'देश के लिए कुछ भी अच्छा नहीं हुआ। इमरजेंसी ने पत्रकारों की जमीर मार कर रख दी थी। पत्रकार के पास जमीर के अलावा होता ही क्या है? इतनी झूठी खबरें छापने के लिए भेजी जाती थींं, जिन्हें हमें छापना पड़ता था। कहते हैं, जो कुछ हम लोग बोते हैं, वह कभी न कभी हमारे सामने आ जाता है। कांग्रेस के साथ भी यही हो रहा है। इंदिरा गांधी को बाबर की कब्र पर गए हुए कई साल बीत चुके हैं, लेकिन अब उस बात को लेकर बाजार गर्म है। कोई कह रहा है, नेहरू के बाद इंदिरा गांधी भी उसी रास्ते पर चली हुई हैं। विपक्ष तो इल्जाम लगा रहा है, बाबर आक्रांता के रूप में हिंदुस्तान आया था। उसका हिंदू और मुसलमान से कोई लेना-देना नहीं था। बहुत सी बातें हैं, जो अभी खुल कर सामने नहीं आई हैं। इस मामले में, मेरी नटवर सिंह जी से बात हुई थी।’
नटवर सिंह जी कह रहे थे, 'समय आने पर एक किताब लिखेंगे और उसमें जिक्र करेंगे, अफगानिस्तान में क्या हुआ था?’
मैंने तुरंत पूछा, 'क्या हुआ था?’
उसने तुरंत कहा, 'नटवर सिंह से सुनी-सुनाई बात है। सच और झूठ का अंतर नहीं पता।’
मैंने हैरान होकर, 'ऐसा भी क्या कह दिया नटवर सिंह जी ने?’
मेरी बात सुन कर वह बोला, 'नटवर सिंह जी ने कहा था, मैंने चेतावनी देते हुए सतर्क किया था, 'मैडम, बाबर की कब्र पर मत जाओ। जब यह खबर भारत के मीडिया में जाएगी, आग लग जाएगी। हाहाकार मच जाएगा।’
'फिर क्या हुआ?’ मैंने जिज्ञासा जाहिर करते हुए पूछा?
उसने मेरे चेहरे पर निगाह डाली और कहा, 'इंदिरा गांधी नहीं मानीं और कहने लगीं, 'कुछ भी हो जाए, मुझे बाबर की कब्र पर जाना है। वैसे भी मीडिया को इस बात की जानकारी नहीं हो सकती, क्योंकि इस समय यहां केवल तुम हो और मैं।’
नटवर जी ने पलट कर कहा, 'सुरक्षा गार्ड भी तो हैं। गाड़ी का चालक भी दिल्ली से साथ आया हुआ है। क्या सब लोग चुप रहेंगे?’
इंदिरा गांधी ने जवाब दिया, 'किसी में इतनी हिम्मत है, मेरे बारे में भारत जाकर कुछ बोलेगा? इसलिए तुम इस बात की चिंता न करो, क्या होगा, क्या नहीं? लेकिन तुम आप अपनी जुबान पर ताला लगा कर रखना।’
नटवर जी ने फिर कहा, 'मैं तो ताला लगा कर रखूंगा। आप अच्छी तरह से जानती हैं, दिल्ली से चलते समय यह प्रोग्राम शैड्यूल में नहीं था। प्रधानमंत्री की जिद्द के आगे नटवर सिंह को झुकना पड़ा।’
मैंने उसकी बात सुन कर पूछा, 'आखिर इंदिरा गांधी वहां गई क्यों? क्या किया वहां जाकर?’
उसने तुरंत कहा, नटवर सिंह जी ने बताया था, 'मैं कुछ दूरी पर खड़ा देख रहा था। मैडम बाबर की कब्र के सामने झुक कर और हाथ फैला कर खड़ी थीं। ऐसा लगता था, जैसे कुछ उससे मांग रही हों। वह कुछ देर वहीं रुकी रहीं और आंखों में आंसू लेकर वहां से लौटीं।’
नटवर सिंह जी ने कुछ बात करनी चाही, मैडम ने चुप रहने का इशारा किया और कहा, 'हमने इतिहास के साथ अपना नाता तोड़ लिया है।’
नटवर जी ने इंदिरा गांधी की बात सुन कर कहा, 'आप क्यों, इतिहास से नाता जोड़ने की बात कर रही हैं? यह वही बाबर है, जिसने हमारे राम लला मंदिर को बर्बाद कर दिया। न जाने कितने लोगों को धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर कर दिया। हमारे देश की राजनीति किस तरफ जा रही है?’
बात बता कर, वह चुप हो गया, लेकिन मैं मन में उस घटना के बारे में सोचने लगा। कभी तत्कालीन प्रधान मंत्री चाचा नेहरू भी उसी बाबर की कब्र पर गए थे, इदिरा गांधी भी उसी कब्र पर जाकर अपने-आप को उससे जोड़ती हैं। कैसी विडंबना है? आने वाली पीढ़ियों के सामने इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की साजिश रचने की बू आ रही है।
मैंने उसकी बात सुन कर कहा, 'एक छोटी-सी चीनी कहानी मुझे भी याद आ गई। असल में, किन हुई को चीनी इतिहास में एक देशद्रोही के रूप में याद किया जाता है। किन हुई को देशभक्त सेनापति युए. फेई की हत्या की साजिश रचने के लिए जाना जाता है। उसका नाम चीन में एक गद्दार के रूप में लिया जाता है। चीनी लोग उससे घृणा करते हैं। चीन में छल, विश्वासघात और देशद्रोह का दूसरा नाम किन हुई है। इसीलिए कहते हैं, लोग चले जाते हैं, लेकिन उनके किए हुए कारनामे हमेशा दोहराए जाते हैं। यूए. फेई. की कब्र के बाहर किन हुई और उसकी पत्नी वांग की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। वे सभी घुटनों की मुद्रा में बैठे हुए हैं। उन्हें देख कर ऐसा लगता है, जैसे कोई याचना कर रहे हैं। यही याचना उनके अपमान को दर्शाती है। उन मूर्तियों को देख कर लगता है, देश के साथ गद्दारी कभी नहीं करनी चाहिए। देश के गद्दारों को इतिहास कभी माफ नहीं करता। यही कारण है, चीन के लोग, अपने इतिहास के उन काले पन्नों को कभी नहीं भूले, जिन्होंने चीन के साथ गद्दारी की। ऐसा सुना है, आज भी लोग वहां जाकर, उन मूर्तियों पर थूकते हैं। अपने आराध्य से प्रार्थना करते हैं, दुनिया में हमें कुछ भी बनाना, लेकिन देशद्रोह कभी मत बनाना।’
एक हमारा देश है, जहां आक्रांताओं की कब्र पर अपनी विरासत ढूंढी जाती है। उनका सिजदा करने के लिए देश में उनकी कब्रों पर मेले लगाए जाते हैं। यही नहीं, जब कोई प्रधानमंत्री देश से बाहर जाता है, तब भी उनकी कब्रों पर जाना नहीं भूलते।’
मैं अभी बात ही कर रहा था, इतने में उसे बुलावा आ गया, 'स्टूडियो खाली है। आप कृपया अंदर स्टूडियो में चले आएं।’
वह जल्दी से मेरे साथ हाथ मिला कर स्टूडियो की तरफ बढ़ गया।’
वह चला गया और मेरे मन में विचार आया, दाल में कुछ काला नहीं है, बल्कि पूरी दाल ही काली है। जब जापान पर एटम बम गिरा, तब भी हमारे नेताओं ने फिरंगियों को बधाई दी थी। मीडिया में ऐसी चर्चा जोरों पर थी, नेता जी की मौत रहस्यमय परिस्थितियों में हुई थी। फिरंगियों को आश्वासन दिया गया, नेता जी जिस भी हाल में मिलेंगे, फिरंगियों को सौंप दिएं जाएंगे। कुछ लोगों का मानना था, ऐसी ट्रीटी साइन की गई थी। नेता जी को लकर भी, अफवाहों का बाजार हमेशा गर्म रहता, नेता जी जिंदा हैं और कहीं छुप कर बैठे हैं? मुझे अच्छी तरह से पता है, जो व्यक्ति के रूप में एक संगठन था, अपनी जान हथेली पर लेकर चलता था, वह इतना डरपोक और कायर नहीं हो सकता। वह किसी से डर कर कहीं छुप कर नहीं बैठ सकता। उसकी मौत, उसे नहीं डरा सकती। मुझे यह कभी-कभी रहस्य लगता है, जिस विमान में उनकी मृत्यु हुई, कहीं किसी ने कोई साजिश तो नहीं रची थी? सोचते हुए मेरे दिमाग पर बोझ पड़ने लगा और मैं वहां से अपने स्टूडियो की तरफ चल पड़ा।
कुर्सी पर बैठते ही सुबह का अखबार देखने लगा। वैसे मैं अखबार को कई बार देख चुका था। अखबार का अक्षर-अक्षर पढ़ चुका था। अब बारी थी, स्नेहलता रेड्डी की 'ए प्रिजन डायरी’ की आखिरी किस्त पढ़ने की। रोज छपने वाली अखबार से हर टुकड़े को काट कर मैंने अपने पास रख लिया था। आज पता नहीं क्यों मलाया में मुझे एक कमरानुमा जेल में कैद करने वाली घटना की याद आ गई। इसी तरह का शौच जाने का प्रबंध था। उन लोगों में भी इतनी समझ और तमीज थी, उन्होंने उस शौचालय के आगे पर्दा लगाया हुआ था। मेरे मन में ख्याल आया, क्या कोई महिला प्रधानमंत्री इतनी क्रूर भी हो सकती है, जो महिलाओं पर इस तरह का अत्याचार करे? इमरजेंसी में लोकतंत्र का गला कैसा घोंटा गया, किसी से छुपी हुई बात नहीं है। जिस दिन इमरजेंसी घोषित की गई थी, उसके अगले दिन दैनिक जागरण अखबार ने इमरजेंसी के विरोध में संपादकीय लिखने वाली जगह को खाली रखा था। शीर्षक की जगह 'नया-नया लोकतंत्र’ और नीचे 'शांत रहें’ लिखा था। इमरजेंसी का विरोध करने के लिए, इससे बड़ा तमाचा शायद कोई नहीं हो सकता था।उस समय क्रूरता की सारी हदें पार कर दी गई थीं। इस तरह की क्रूरता मुझे मलाया में भी देखने को नहीं मिली थी। अपनी बात कहने की आजादी वहां भी थी। लेकिन स्वतंत्र देश में, लोक-तंत्र को पर-लोक तंत्र में बदलना सीखना हो, तो इमरजेंसी से सीखा जा सकता है। घटनाएं कई हैं, लेकिन कन्नड़ अभिनेत्री स्नेह लता रेडी के साथ जो कुछ हुआ, उसके बारे में आने वाली पीढ़ियां सुनेंगी, तो उनकी रूह कांप जाएगी। एक महिला होकर महिला का दर्द, क्या समझना था, उसे प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उस अभिनेत्री को, जब 1970 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था, तब उसके चेहरे की मुस्कान देखते ही बनती थी।
जिस तरह की तस्वीरें अखबारों में छपी थीं, उन्हें देख कर लोग कहते थे, 'अभिनेत्री हो, तो स्नेह लता जैसी हो।’
महिलाओं की प्रेरणा स्रोत बताया गया था, लेकिन उस स्नेह लता को किसकी नजर लगी कह नहीं सकते? बहुत कम अभिनेत्रियां हैं, जो अदाकारी के साथ-साथ सामाजिक कार्यों के लिए भी लोगों को जागरूक करती हैं। जब आपातकाल की घोषणा हुई, वह शांतिपूर्वक प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतर गई। यही बात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को खल गई। उन्हें लगा, समंदर में मिट्टी का दीया कैसे चल रहा है। वह अभिनेत्री जार्ज फर्नांडिस की मित्र थी। लगता है, उस पर मित्रता भी भारी पड़ गई। 2 मई 1976 को मीसा के तहत उन्हें बंदी बना कर, सलाखों के पीछे डाल दिया गया। इस एक्ट के तहत कितने लोगों को नाजायज तरीके से जेलों में डाला गया, कभी न कभी लोग हिसाब जरूर पूछेंगे? जार्ज फर्नांडिस फरार थे, लेकिन उनकी मित्र दबोच ली गई। उसके साथ ऐसे व्यवहार किया, जैसे वह कोई क्रिमिनल हो। मानवता की सारी हदें पार कर दीं। उसे जेल में बहुत तंग किया गया। जेल से छूट कर कुछ ही दिनों के बाद, वह भगवान को प्यारी हो गई।
मुझे लगा इंदिरा गांधी पर बाबर और औरंगजेब जैसे आक्रांताओं का ज्यादा असर था। इसीलिए, उस दौरान जिस महिला को भी जेल में पटका जाता, सबसे पहले उस महिला को नग्न कर दिया जाता। स्नेहलता इसके बारे में भी जेल में लिखी हुई 'ए प्रिजन डायरी’ में यह बात दर्ज करते हुए सवाल पूछती हैं, 'क्या मानव शरीर अपमानित करने के लिए बना है?
आज सोचता हूं, तो लगता है, इसके पीछे अगर कोई जिम्मेदार है, तो वह है बाबर की कब्र पर सिर झुकाने वालों की राजनीतिक मानसिकता। यही कारण रहा होगा, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का सिर कभी अयोध्या के मंदिर में नहीं झुका, लेकिन बाबर की कब्र के आगे जाकर नतमस्तक होता है।’
एक अखबार में खबर छपी थी, जिस जेल में स्नेहलता रेड्डी थी, उसी जेल में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी भी कैद थे।
उन्होंने इमरजेंसी के बाद अखबार वालों को बताया, 'उनकी कोठरी में किसी महिला के चीखने की आवाजें सुनाई देती थीं। तब पता नहीं चलता था चीखने वाला कौन था? हम लोग यही सोचते रहे, ईश्वर ऐसे घृणित कार्य के लिए जरूर दंड देगा।’
मधुदंडवते जी ने इमरजेंसी के बारे में, जो कुछ भी अखबार वालों को बताया, उससे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। वैसे भी स्नेहलता अस्थमा की रोगी थी। उन्हें जेल में किसी तरह का उपचार नहीं दिया गया। जब उसकी हालत बिगड़ गई, उसे मरने के लिए 15 जनवरी 1977 को पेरौल पर रिहा कर दिया गया था। उस पर संगीन आरोप लगाए गए थे। स्नेहलता का हाथ दिल्ली की इमारतों को डायनमाइट से उड़ाने का इल्जाम था। यह एक महिला की कहानी है, लेकिन ऐसी पता नहीं कितनी महिलाएं थीं, जिनका गला लोकतंत्र के नाम पर घोंट दिया गया। सुना है, समय बहुत बलवान होता है। कभी न कभी अपने-आप को दोहराता है। जिस दिन दोहराएगा, उस दिन कोई न कोई लेखक इस धरती से पाताल तक, उस काले सच को पानी की लहरों से उठा कर, कागज के पन्नों पर उजागर करेगा। जिस दिन उजागर होगा, उस दिन इतिहास में एक नया चैप्टर जुड़ जाएगा।’
मुझे बेबे की एक बात याद आ गई, वह कई बार कहती थी,
'जिदां दे दीवे, ओदां दे आले
जिंदा दे जीजे, ओदां दे साले
सारे ई घाले माले’
मुझे ऐसा महसूस हुआ, इमरजेंसी भी घाले-माले का दूसरा नाम था। आजादी से पहले फिरंगी हमें मेमनों की तरह इस्तेमाल करते रहे। आजादी के बाद सरकारें भी, उसी रास्ते पर चली हुई हैं। पता नहीं, इसका अंत होगा या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्त में छुपा हुआ है।
सोचते हुए मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैंने अपने सहायक से कहा, 'शुक्र है, इमरजेंसी का काला दौर खत्म हो गया।’
उसने मेरी बात सुनते ही कहा, 'इमरजेंसी भले ही खत्म हो गई है, लेकिन उसकी दहशत अब भी मन पर अंकित है।’
मैंने जवाब देते हुए कहा, 'बात तुम्हारी सोलह आने सच है। अब भी शाम को हर व्यक्ति घर जल्दी पहुंच जाता है। इमरजेंसी खत्म होने के बावजूद, लोग दहशत में हैं। इमरजेंसी के दौरान पता नहीं कितने लोगों की नसबंदी कर दी गई है? कितने लोगों का घला घोंट दिया गया है। कई पत्रकार देश छोड़ कर भाग गए हैं। कई प्रिंटिंग प्रेस बंद हो गई हैं। पत्रकारों की आवाज दबा दी गई है। सच का गला घोंट दिया गया है। जिन लोगों ने अपनी जुबान पर ताला लगा लिया था और सरकारी बोली बोलते थे, वही लोग बाहर खुले-आम घूमते थे। बोलने वाले लोग सलाखों के पीछे थे।’
बात करते हुए मैंने घड़ी पर नजर मारते हुए कहा, 'खबरों के प्रसारण का समय नजदीक आ गया है।’
कह कर मैं स्क्रिप्ट का इंतजार करने लगा।
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समय बीतते हुए पता नहीं चलता। वही हुआ, जिस लोकतंत्र की हत्या की चर्चा देश दबी जुबान में करता था, उसकी चर्चा गली-गली में होने लगी। लोकतंत्र का गला घोंटने का नतीजा दिखने लगा। विभाजन के इतने सालों के बाद, जनता ने सूरज को पासा पलटने के लिए मजबूर कर दिया था। यही है, लोकतांत्रिक देशों की असली खूबसूरती। जनता जनार्दन सब कुछ होती है। कांग्रेस के सूरज की तूती, आजादी के पहले से लेकर, अब तक बोलती रही। लेकिन 25 जून 1975 को इक्कीस महीने लगाई इमरजेंसी के बाद तिनका-तिनका बिखरना शुरू हो गया था। इमरजेंसी के बाद बहुत से लोग कांग्रेस पार्टी छोड़ कर इधर-उधर चले गए थे। कांग्रेस का बहुत बड़ा सपना टूट गया था। सत्ता हाथ से निकलने का गम, वही जाने जिसने भोगा है। हिंदुस्तान के इतिहास में पुराना सूरज अस्त हो गया था और नया सूरज चढ़ गया था। सभी ने मिल कर एक नई पार्टी बना ली थी, जिसका नाम था जनता पार्टी। जनता पार्टी ने इस बात को ठान लिया था, किसी भी तरह से सत्ता में कांग्रेस नहीं आनी चाहिए।
बहुत से सवाल जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस से पूछे जाने लगे थे। असल सवाल एक ही था, क्यों लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया? क्यों जनतंत्र को पिंजरे की गूंगी चिड़िया बनने के लिए मजबूर कर दिया गया? क्यों बड़े-बड़े पत्रकारों को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया? क्यों अखबारों के पन्नों को देखने के लिए सरकारी अफसर बिठा दिए गए? कांग्रेस के पास सवालों का कोई जवाब नहीं था। सारे सवालों के जवाब जनता ने इलेक्शन में दिए। उसका नतीजा यह हुआ, देखते ही देखते पासा पलट गया और मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बन गए।
मेरे रिटायर होने में भी कुछ महीने ही बाकी बचे थे। आखिर वह दिन आना था, आ गया और मैं रिटायर हो गया। रिटायरमेंट के बाद मैं चाहता था, सीधा जलंधर चला जाऊं। लेकिन मेरे मन में यह बात हमेशा से खटकती रही, रिटायरमेंट के बाद, मैं मसूरी सर्वेश्वर से मिलने जरूर जाऊंगा। इतने वर्ष हो गए, जिंदगी की आपा-धापी में सर्वेश्वर से मुलाकात हो नहीं पाई। सोचते-सोचते पता नहीं किन ख्यालों में खो गया। यह भी नहीं पता चला कितनी देर तक खोया रहा।

लेखक के बारे में:
डॉ. अजय शर्मा को केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के नामित सदस्य हैं। हाल ही में उनका उपन्यास “बसरा की गलियाँ” गुरु काशी विश्वविद्यालय के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। यह उनका सातवाँ उपन्यास है जिसे विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान मिला है। इस उपन्यास को अकेले ही तीन अलग-अलग विश्वविद्यालयों के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जो एक अद्वितीय उपलब्धि है। अब तक वे 17 उपन्यास, 6 नाटक और एक कहानी संग्रह लिख चुके हैं। उनके सात उपन्यास विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और कई रचनाएँ देश की विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। उन्हें पंजाब सरकार का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘शिरोमणि साहित्यकार पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार का ‘साहित्यिक सौरभ सम्मान’, तथा केंद्रीय हिंदी निदेशालय का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।
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