डॉ अजय शर्मा के शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे उपन्यास `हिंदुस्तानी मेमने' का एक अंश
प्रस्तुत है, जालंधर (पंजाब) से संबंधित प्रसिद्ध उपन्यासकार डॉ अजय शर्मा के शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे उपन्यास `हिंदुस्तानी मेमने' का एक अंश:
जिन लोगों को अमृतसर साथ जाना था, उन्हें सब कुछ डिटेल में बताने के बाद, मैं घर चला आया था। आज घर पहुंच कर मन भटक रहा था। बेचैन मन का कोई इलाज नहीं मिल रहा था। कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या बात करूं, किससे करूं? मैंने चन्नो को संक्षिप्त में सारी बात बता दी थी।
जब मैंने बात बताई, उसके मन में जैसे कोई आशा की किरण फूट पड़ी और बोली, 'आप लाला जी को बोल कर पाकिस्तान जाने की इजाजत क्यों नहीं ले लेते? मैं एक बार मरने से पहले अनवर को देखना चाहती हूं। पता नहीं कैसा होगा और किस हाल में होगा?’
मैंने उसकी बात सुनते ही कहा, 'अभी यह संभव नहीं है। दोनों देशों के बॉर्डर पर अपने-अपने देश की सेना तैनात है। अब हिंदुस्तान वैसा नहीं रहा, जैसा विभाजन से पहले था। सब कुछ बदल चुका है। अब पाकिस्तान और हिंदुस्तान दो देश हैं और दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे। दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे का सिर कलम करने के लिए तैयार रहती हैं। जो जितने ज्यादा सिर कलम करेगा, उसकी वर्दी में उतने बिल्ले ज्यादा लगेंगे।’ कहते-कहते मैं थोड़ा मायूस हो गया।
मुझे मायूस देख कर चन्नो बोली, 'आप मेरी चिंता मत करें। आप अपनी ड्यूटी करें। मैं कौन-सा मरी जा रही हंू, लगता है, कोई दैविक ताप है, जिसके साथ ही जिंदगी गुजरेगी। कैसा ताप है, कुछ समझ नहीं आ रहा? कभी दिन में चढ़ जाता है, कभी शाम को। कभी बिल्कुल ठीक लगती हूं, कभी लगता है, यह ताप एक दिन मेरी जान निकाल कर ही दम लेगा। मरने से पहले एक ही तमन्ना है, अनवर को एक बार देख लूं। अनवर और दमन, पता नहीं फौजी बन कर किस सरहद पर डटे होंगे? फौजी हैं, फौजियों का धर्म यही है। एक दिन आपने बताया था, 'अनवर भी पाकिस्तान की फौज में भर्ती हो गया है।’ चन्नो बात करते-करते रोने लगी।
रोते हुए फिर बोली, 'आपको याद है न, दोनों का जन्म कुछ दिन के अंतर में हुआ था। दाईं और हमारे चारों के अलावा, इस बात को कोई नहीं जानता, हमने बेटे बदल लिए थे। मेरी छातियों में दूध नहीं उतर रहा था। मैं बहुत परेशान रहती थी। बेटे की टट्टियां बंद होने का नाम नहीं ले रही थीं।’
अनवरी ने कहा था, 'तुम क्यों चिंता करती हो? अल्लाह-ताला सब ठीक कर देगा।’
मैंने रोती हुई ने कहा था, 'अल्लाह-ताला ने ठीक करना होता, मेरी छातियों मे दूध उतार देता, ताकि मैं अपने बेटे को पिला पाती। दूध न उतरने के चलते, गाय और भैंस का दूध शुरू करके देखना पड़ा, लेकिन वह दूध भी पच नहीं रहा था। उसके बाद, कई दिन अनवरी ने अपनी छाती से दमन को दूध पिलाया।’
एक दिन अनवरी ने कहा था, 'दूध पिलाते हुए, मुझे लगने लगता है, दमन मेरा बेटा है। मुश्किल से दो महीने के रहे होंगे, जब हम दोनों ने बेटे बदल लिए थे और अपना रिश्ता पक्का कर लिया था। यह बात किसी को नहीं पता। आप को याद होगा, आपके मलाया से लौटने के बाद थोड़ा-थोड़ा समझदार हो गए थे। उस दिन, हम लोग गांव के बाहर छिंज देखने गए थे और हमने दमन के हाथ में ओंकार गुदवा दिया था और अनवर के हाथ में अल्लाह। उस दिन, इस बात पर पक्की मोहर लग गई थी। अब किसी भी हाल में बच्चों की अदला-बदली नहीं हो सकती थी। बंटवारे के समय हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ, मुल्क तकसीम हो गए। इसी के साथ हमारे बेटे भी तकसीम हो गए। हमारा बेटा सदा के लिए पाकिस्तान चला गया और रहीम का बेटा हमारे पास रह गया। दोनों को अपना धर्म नहीं पता। उस दिन, भाईचारे पर तलवार की एक बहुत बड़ी लकीर खिंच गई थी। इत्तेफाक देखो, दोनों बेटे अपने ही मुल्क के विरुद्ध लड़ रहे हैं, लेकिन दोनों इस बात से अंजान हैं। आज मुझे अपनी गलती पर अफसोस हो रहा है। उससे भी बड़ा अफसोस यह है, हमने उन्हें क्यों नहीं बताया? हमेें बता देना चाहिए था। हो सकता है, दोनों फौज में न जाते। अब दोनों सरहद पर दुश्मन बन कर खड़े हैं। बंटवारे ने सारे रिश्ते एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े कर दिए हैं। किसी को इस बात की भनक तक नहीं थी, बंटवारा किसी नासूर से कम नहीं होगा? गाहे-बगाहे इसके जख्म रिसते रहेंगे। जो लोग बंटवारे के समय कत्ल हो गए, वे मुक्ति पा गए। हम जैसे अभागे, कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे।’ चन्नो बोलते-बोलते रोने लगी थी।
मैं मन ही मन सोचने लगा, समय का पहिया, घूमता हुआ अपनों को ही रौंद डालेगा, कभी सोचा नहीं था। इस घूमते हुए पहिए ने, सारी मान्यताएं ताक पर लगा दी थींं। जिन मान्यताओं को हम भाई-चारा मान रहे थे, आज वही हम पर हंस रही थींं। आज लग रहा है, जिन बेटों को हमने भाई-चारे के नाते बदला था, वह भाई-चारा नहीं, बल्कि बंटवारे का ही एक रूप था। कुदरत को पता नहीं क्या मंजूर था? मेरे दो बेटे हैं, दोनों सरहदों पर खड़े हैं। दोनों बेटे दरियाओं में पानी की कल-कल की तरह बहते थे। वे पानी के बहाव से किसी भी किनारे की तरफ आ-जा सकते थे, लेकिन आज दरिया के दो किनारे बन गए हैं, जो आपस में कभी नहीं मिल सकते। पानी उन दोनों किनारों के बीच समाया रहता है। जब उफान आता है, पानी किनारों को तोड़ कर तबाही मचाता है और विनाश करता है। बात करते-करते चन्नो और मेरे बीच चुप्पी की दीवार खड़ी हो गई थी। हम काफी देर तक चुप रहे और शून्य में निहारते रहे। आखिर मैं वहां से उठा और कमरे में जाकर लेट गया।
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कुछ समय के बाद चन्नो कमरे में आ गई। मुझे उदास देख कर समझ गई थी, कुछ तो माजरा है। उसने पूछना ठीक नहीं समझा। लंबे समय तक मेरे पास बैठी रही और फिर उठ कर बाहर चली गई।
दोबारा कमरे में लौटी, हाथ में रात के खाने की प्लेटें थीं। हम लोगों ने खाना इतनी जल्दी-जल्दी खाया, जैसे कोई चोर हमारा पीछा कर रहा हो। खाना खा कर चन्नो बर्तन उठा कर रसोई में चली गई।
कुछ समय के बाद लौटी, मैंने चन्नो को दवा दी और चन्नो पानी के साथ गटक गई।
दवा खाते ही कहने लगी, 'दमन के भापा जी, आज बड़े उदास लग रहे हैं? आपका तो फौलादी जिगरा है। आप अक्सर कहते हैं, 'मैंने जिंदगी में इतना कुछ देखा है, छोटी-मोटी बात मेरे ऊपर कोई असर नहीं करती।’
मैंने तुरंत कहा, 'क्या तुम्हें यह छोटी बात लगती है?’
चन्नो मेरी बात सुन कर चौंक गई। शायद चन्नो को मुझ से इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं थी।
मैंने संभलते हुए कहा, 'तुम सही कह रही हो। मैं मजाक कर रहा था। तुमने दवाई खा ली है, अब चुपचाप लेट जाओ। डॉक्टर ने तुम्हें फालतू बातों की तरफ ध्यान देने के लिए मना किया हुआ है। कल को कुछ हो गया, मैं दुनिया में अकेला रह जाऊंगा। तुम अच्छी तरह से जानती हो, फौजियों का कोई घर नहीं होता। मैंने जिंदगी की चढ़ती हुई उम्र फौज में निकाल दी। तुम्हारे बिना यह घर, घर नहीं रहेगा।’
मेरी बात सुन कर चन्नो ने कहा, 'ऐसी मनहूस बातें जुबान पर नहीं लाते हैं।’ कहते-कहते वह बिस्तर पर लेट गई।
थोड़ी देर के बाद उसने बत्ती बंद कर दी। मैंने देखा, चन्नो थोड़ी देर के बाद खर्राटे मारने लगी थी। यह दवा का ही असर है। यह रोज का काम है, क्योंकि डॉक्टर ने कहा था, 'नींद जितनी गहरी आएगी, सेहत उतनी अच्छी रहेगी।’
चन्नो सो गई, लेकिन मेरी नींद पता नहीं कहां सुरखाब के पंख लगा कर उड़ गई थी। मैं सोना चाहता था, लेकिन नींद नहीं आ रही थी। एक बार मन हुआ, चन्नो की दवा में से एक गोली निकाल कर, मैं भी खा लूं और गहरी नींद में चला जाऊं, लेकिन ऐसा नहीं कर पाया। डॉक्टर ने पता नहीं क्या सोच कर दवा लिखी होगी। ऐसा न हो, उसका कोई उल्टा असर हो जाए। मैंने आंखें बंद करके सोने की कोशिश की, मेरी नजरों में अपना गांव आ गया। मुझे याद आने लगा, जब नंबरदार और जैलदार ने घर आकर फौज में नौकरी की बात बताई थी, तब घर में खुशी का माहौल था। सब को लगता था, बीस-बाईस वर्ष के छोकरों को अंग्रेजी हुकूमत नौकरी दे रही है।
लोग गांव में अक्सर बात करते, 'बड़े खुशनसीब हैं ये लड़के और घरवाले।’
असल में, गांव में बहुत लोग थे, जो नौकरी को तरसते थे। हमारी किस्मत अच्छी थी, हमें नौकरी का संदेशा आ गया था। किस्मत कितनी खराब थी, यह बात मलाया जाकर समझ आ गई थी। नौकरी का लालच देकर, फिरंगी विदेशी धरती पर, दूसरे विश्व युद्ध में लड़ने के लिए हिंदुस्तान से हांक कर ले जाते थे। मेमनों और भेड़-बकरियों की तरह मरने के लिए, मौत के मुंह में धकेला दिया जाता था। अपना गुलाम बना कर दूसरे देशों की धरती पर कब्जा करने का मंसूबा था, फिरंगियों का। उसमें बलि का बकरा हिंदुस्तानियों को बनाया जा रहा था। अचानक, मलाया में एक फौजी की मौत के आखिरी पल, मेरी आंखों के सामने से गुजरने लगे। मुझे उस फौजी में दमन और अनवर नजर आने लगे।
सोचते-सोचते मेरे दिमाग पर बोझ पड़ने लगा। मन बेचैन हो गया। मैं सोचता हुआ, चौंक कर उठा और बिस्तर पर बैठ गया। मैंने देखा चन्नो गहरी नींद में थी। मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा।
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हम लोग जीप में बैठ गए थे। सभी ने मिलिट्री की वर्दी पहनी हुई थी। सब लोग चुपचाप बैठे हुए थे। जीप लगातार अमृतसर के वाघा बॉर्डर की तरफ बढ़ रही थी।
अचानक रहीम का धुंधला-सा चेहरा मेरी आंखों के सामने गुजरने लगा। रहीम विभाजन के बाद एक बार मिलने आया था।
उसने बताया था, 'विभाजन के साथ पंजाब के दरिया भी बंट गए। अब केवल दो-तीन दरिया पंजाब के हिस्से में हैं। पता नहीं, कैसे दरिया जहन में आ गए और मेरे सामने रहीम आकर खड़ा हो गया। मुझे लगा, वह मुझ से बातें कर रहा है।
मैं अक्सर कहता था, 'समंदर की एक खासियत है, वह दरियाओं की तरह छल्ले नहीं बनाता और उसमें छलावा नहीं होता। बिल्कुल साफ दिल का होता है। सबको पता रहता है, पानी में कहां तक उतरा जा सकता है और कहां जाकर पानी सिर के ऊपर चला जाएगा, जबकि दरिया में ऐसा नहीं होता। हमारे पंजाब ने दरियाओं के सच को भोगा भी है, देखा भी है। लेकिन समंदर की आवाज रात को डरा देती है। अकेले उसके किनारे पर चले जाओ, लगता है समंदर के सारे जानवर निकल कर आपको निगलने के लिए आ गए हैं। इसके बावजूद समंदर का किनारा बार-बार पुकारता है और देखने का मन करता है। मैंने बाकी के फौजियों की तरह समंदर से कभी मछली पकड़ कर नहीं खाई। बल्कि जो मछलियां पानी की लहर के साथ किनारे पर आ जाती थीं, उन्हीं से काम चला लेता था। मेरा ज्यादा समय हिंदुस्तान के उन फौजियों को काऊंसिल करने में बीतता था, जिन्हें ब्रिटिश आर्मी के चंगुल से निकालना था। उन्हें किसी तरह जनरल मोहन सिंह जी द्वारा बनाई हुई आजाद हिंद फौज में भर्ती करने का था।
मुझे आज भी याद है, जब मैंने शुरू-शुरू में कुछ लोगों को काऊंसिल किया था, तब मुझे सब ने कहा था, 'अजीत पागल हो गया लगता है। यह खुद भूखा मरेगा, साथ में हमें भी भूखा मारेगा।’
एक फौजी ने यहां तक कहा था, 'यार भूखा रह कर गुजारा कर लेंगे, अगर फिरंगियों को भनक भी पड़ गई, उनकी गोली से कौन बचाएगा? तुम हमेशा कहते हो, ये गोरे कौव्वे हैं, जो एक आंख से चारों तरफ देख लेते हैं। ऐसे में इन गोरे कौव्वों से हमें कौन बचाएगा? न भाई न, पानी में रहते हुए मगरमच्छ से बैर नहीं ले सकते। ऐसा सोच कर हमारी रूह कांप उठती है।’
एक फौजी ने कहा था, 'अगर हम लोग यहां भारत माता की सेवा में लग गए, हमारे बच्चों को रोटी कौन खिलाएगा? वे भूखे मर जाएंगे।’
एक और आवाज आई थी, 'यार तुम क्यों जान-बूझ कर मौत के मुंह में जाना चाहते हो। जिस देश में बैठे हैं, मरने पर किसी को पता भी नहीं चलेगा। सच पूछो, लाश को इन्हीं मछलियों के हवाले कर दिया जाएगा, जिन्हें मार कर हम लोग, रोज अपना पेट भरते हैं। यही जिंदगी का साइकिल है भाई, कदे दादे दीयां, कदे पोते दीयां।’
सबकी बातें सुन कर मैं चुप हो गया था।
मुझे चुप देख कर रहीम ने कहा था, 'अजीत तुम्हारे चेहरे की हवाइयां क्यों उड़ी हुई हैं? मेरा मतलब है, अगर कोई बात है, उसका हल निकाल दिया जाएगा। एक तो हम लोग यहां एकांत में पड़े हैं, ऊपर से अकेले हैं। ऐसे में जिंदगी के साथ कहां तक चल पाएंगे?
तुम अक्सर गुरु गोबिंद सिंह जी की पंक्तियां सुनाते हो, 'चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं...।’ ऐसे में तुम खुद चिड़ी बन जाओगे, चिड़ियों से चींटी लड़ाने के काबिल भी नहीं रहोगे।’
मैं रहीम की बात सुन कर बोला, 'कोई ऐसी बात नहीं है। पता नहीं क्यों मन कुछ परेशान है।’
उसने मेरी बात सुन कर कहा, 'अजीत सिहां दाइयां कोलों ढिड्ड नहीं लुकाइ दे। मैं तुम्हारा दु:ख समझता हूं। हमारे सुख-दु:ख एक जैसे हैं। हम लोग एक ही कश्ती में सवार हैं।
मैं रहीम की बात सुनते ही बोला, 'यार, तुमसे कुछ भी छुपा नहीं है। तुम्हारी और मेरी उम्र में केवल 27 दिनों का अंतर है। तू मुझ से 27 दिन बड़ा है और मैं छोटा। मुझे कुछ भी नहीं भूला। गांव में हमारा आंगन भी एक है। बीच में एक छोटी-सी मिट्टी की कच्ची दीवार है। दीवार के उस पार तुम्हारा परिवार और इस पार हमारा परिवार रहता है।’
मेरी बात सुनते ही रहीम बोला, 'सही कह रहे हो अजीत। ये दीवारें सलामत रहें, यही खुदा से दुआ है। इन दीवारों में दरारें नहीं आनी चाहिएं। बड़ी मुश्किल से पुराने जख्मों को लोग भूलते हैं, फिर कुछ हाकिम ऐसे आते हैं, जो दीवारों की दरारों को बढ़ाते जाते हैं। उन दरारों में दीवार दिखनी बंद हो जाती है। छोटी-छोटी दीवारों को हम र्फ्लांग कर एक-दूसरे के पास चले जाते थे। अब कितना मुश्किल हो गया है। खैर, हमारी दोस्ती, जिंदाबाद। जिंदाबाद हिंदुस्तान। जिंदाबाद-जिंदाबाद।
इस बीच चन्नो मक्की की रोटी और साग लेकर आ गई।
साग की तारीफ करते हुए रहीम ने कहा, 'हम लोग कहां से चले थे, समय ने कहां तक पहुंचा दिया? हालांकि जिन्ना खुद कन्वर्टेड मुसलमान था, इसके बावजूद उसे लगता था, पाकिस्तान में केवल पाक लोग ही रहेंगे। उसका कहने का मतलब यही हुआ, हिंदुस्तान में जो मुसलमान रहेंगे, वे नापाक होंगे। बात करते हुए उसकी आंखें नम हो गई थीं।’
मुझे ऐसा महसूस हुआ, जैसे रहीम ने कहा, 'अच्छा मैं चलता हूं, खुदा हाफ़िज़।’
रहीम खुदा हाफ़िज़ कह कर आंखों से ओझिल हो गया। मैं यादों की दल-दल से बाहर नहीं निकल पाया।
मुझे याद आया, बेबे कई बार बताती थी, 'उसकी छातियों में दूध नहीं उतर रहा था। अगर उतर भी रहा था, बहुत कम, जिससे मेरा पेट नहीं भरता था। तब रहीम की मां ने काफी समय तक अपना दूध पिलाया। कई बार रहीम की मां रहीम को कम दूध पिलाती, क्योंकि उसे मुझे भी दूध पिलाना होता था। कई बार रहीम बहुत रोता था। उन दिनों रहीम की मां ने न मांस को हाथ लगाया और न ही घर में किसी को बना कर दिया। उसने कहा था, 'जिन संस्कारों में अजीत को पालना चाहती हो, मैं उन्हीं संस्कारों में पालूंगी।
जब यह बात हो रही थी, तब रहीम के अब्बू जान भी वहीं आ गए थे।
उन्होंने बात सुनते ही कहा, 'घबराओ नहीं अजीत की बेबे, वैसे हम लोग भी पुराने हिंदू हैं। औरंगजेब ने हमारा धर्म बदल दिया। हमारे पुरखे बताते थे, हमारे घर में राम और कृष्ण की पूजा होती थी। सत्यनारायण का व्रत होता था। हर त्यौहार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। सत्य नारायण की कथा हर पूर्णिमा के दिन घर में की जाती थी। लेकिन जब से हम लोग मुसलमान हो गए हैं, उसी के रंग में रंग गए हैं। धीरे-धीरे सब कुछ छूट गया। छूट ही नहीं गया, बल्कि भूल भी गया। हमारी पीढ़ी याद भी नहीं करना चाहती। अब किसी को स्वीकार करना बड़ा मुश्किल है। हमारे रीति-रिवाज बदल गए। हम लोग वह करते हैं, जो सनातन में नहीं किया जाता।’
मैंने तुरंत पूछ लिया था, 'ऐसी कौन-सी खास बात है, जो सनातन में की जाती है और मुस्लिम धर्म में नहीं?’
मेरी बात सुन कर रहीम के अब्बा बोले थे, 'बात कुछ खास नहीं है और है भी। जब दूध एक बार दही में बदल जाता है, उसे फिर से वापस दूध बनाना मुश्किल है। यही हमारे साथ भी हुआ है। इसके बावजूद चीजें वही हैं, लेकिन अंदाज-ए-बयां बदल गया है। सच पूछो, बहुत कुछ है, बताने लगूंगा, बात लंबी खिंच जाएगी। फिर भी थोड़ा-सा अंतर बताता हूं। हिंदुओं के घरों में रोटी सीधी तरफ चुपड़ी जाती है, जबकि मुसलमानों के घरों मे उल्टी तरफ। महिलाएं पल्लू को सीधी तरफ लेती हंै और हमारे यहां उल्टी तरफ। मुसलमानों में अल्लाह का सिजदा हाथ खोल कर किया जाता है, लेकिन हिंदुओं में हाथ जोड़ कर। मुसलमानों में दुपट्टा उल्टी तरफ लिया जाता है, हिंदुओं में सीधी तरफ। नाक का लौंग ख्वातीन बाईं तरफ पहनती हैं हिंदुओं में दाईं तरफ। कोई अंतर नहीं है, केवल और केवल दूध से दही बनने के बाद उनके तौर तरीके और गुण धर्म बदल दिए गए हैं। सनातनी सूर्य को पूजते हैं, हम लोग चंद्रमा को, जबकि सूर्य सबके आराध्य होने चाहिए, क्योंकि सूर्य नहीं, तो कुछ भी नहीं। सूर्य नहीं, तो संसार खत्म। इसीलिए सूर्य को आत्मा का कारक माना जाता है और चंद्रमा को मन का। आत्मा हमेशा बलशाली होती है और मन की गति हमेशा ऊपर-नीचे होती रहती है। यह बात अब खुले आम होने लगी है, जब चंद्रमा अपनी कलाओं में घटता-बढ़ता है, तो समुद्र की लहरों पर भी असर पड़ता है। मन है, मन का डोलना मन का स्वभाव है। जितने भी आक्रांता बाहर से आए, उनका मन डोलता रहा, ललचाता रहा। इतना कुछ लूट कर ले गए, लेकिन सनातन के पांव जमीन पर टिके थे, टिके रहे। वह आज भी उतनी ही शिद्दत से अपने-आप को महान कहता है।’
सोचते-सोचते मेरी आंखें भर आईं, क्योंकि रहीम की पत्नी का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया। भले ही अब वह इस दुनिया से रुख्सत हो चुकी है, लेकिन उसकी हर बात मुझे याद है। उसकी आंतड़ियों का दूध, खून बन कर मेरे बेटे की रगों में बह रहा है। यादों की कसक मेरे मन में हमेशा बनी हुई है। मुझे लगता है जिंदगी दो तरह के बंधन में बंधी हुई है। एक वह है, जिसे हम लोग काट सकते हैं, दूसरा वह जिसे हम काट नहीं सकते या फिर काट कर भी उसी बंधन में बंधे हुए हैं। मुझे रहीम का परिवार और अपना परिवार उसी कड़ी का हिस्सा लगने लगे। भले ही वह बंधन से कट चुके हैं, लेकिन उस बंधन के निशान मन पर उकरे हुए हैं। मैं खुद भी उसी बंधन का हिस्सा, जो चाह कर भी बंधन को काट नहीं पा रहा हूं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं, यह बंधन का एक रूप है या बंधन से मुक्त होने का भय। सारी जिंदगी हम लोग इस तरह की हथकड़ियों में और बेड़ियों में जकड़े रहते हैं, जो न हमें आजाद होने देती हैं न गुलाम रहने देती हैं। यही वे बातें हैं, जो हर पल हमें कुछ नया करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। जीवन में हम जो भी करना चाहते हैं, वह अपनी इच्छा से करते हंै। इच्छाओं की पूर्ति के लिए हम लोग एक दिन मृत्यु के भय से डर जाते हैं। डर भी इतना जाते हैं, हमें हरि की शरण में जाना पड़ता है। हर धर्म यही कहता है, मेरे शरणागत हो जाओ, तुम भव सागर को पार कर जाओगे। भगवान कृष्ण का भी यही सिद्धांत है और बुद्ध का भी। बुद्धमय हो जाना ही जीवन है। मृत्यु के भय से मुक्ति दिलाना ही हरि का काम है। गीता का हर अध्याय यही शिक्षा देता है। हमारे संशय दूर करता है और हमें प्रभु की शरण में लगाकर सद्गति की तरफ प्रेरित करता है।
मैं अपनी यादों की दलदल में डूबा हुआ था, लाला जी की आवाज ने मुझे दल-दल से बाहर निकाल दिया।
लाला जी ऊंची आवाज में बोले, 'यार पता नहीं अभी कितने दु:ख और देखने बाकी हैं। पंजाब पहले से ही त्रस्त है, ऊपर से बॉर्डर स्टेट बन गया है। जब भी खतरा मंडरायेगा, उसके बादल सबसे पहले पंजाब में दिखाई देंगे। पहले भी यही था, पंजाब आक्रांताओं के लिए एक सोने का दरवाजा था, जिस रास्ते से सब आक्रांता आए। केवल अंग्रेज ही हैं, जिन्होंने आने के लिए दूसरा रास्ता अपनाया। मुगल आक्रांता जितने भी आए, इसी रास्ते से आए। सब लुटेरे थे, हिंदुस्तान को लूटने के मंसूबे से आते थे। मुझे एक बात समझ में नहीं आती, मु_ी भर लोग आते थे और हिंदुस्तान पर कब्जा करने की सोचने लगते थे। ऐसा लगता है, बाहर से आने वालों से खतरा कम और अंदर वालों से ज्यादा था। जय चंद एक उदाहरण है, कई जय चंद होंगे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर नहीं आ सका। कुछ गद्दारों के चलते हमारी मिट्टी लहू से सनी हुई मिट्टी है। जलियांवाला बाग का नरसंहार यहां हुआ। चार साहिबजादे, इसी मिट्टी में शहीद किए गए। गुरु गोबिंद सिंह जी, गुरु तेग बहादुर के अलावा, जिसने गुरु साहब के बच्चों को दूध पिलाया, उसे भी औरंगजेब ने नहीं बख्शा। इसके बावजूद, हमारी कौम बहादुर है। बंद-बंद कटवाया पर अपनी कौम के साथ अपने देश के साथ गद्दारी नहीं की। गुरुओं की धरती को अपवित्र करने का काम मुगल आक्रांताओं के गुंडों ने किया। महाराजा रंजीत सिंह के समय लोग डरते थे और कहते थे जल्दी से यहां से निकल जाओ, नहीं तो रंजीत सिंह आ जाएगा।’
मैं लाला जी की बातें सुन रहा था, लेकिन मन पता नहीं कहां-कहां भटक रहा था। अचानक सर्वेश्वर यादों में आ गया। जंग के मैदान में जाने से पहले मैं सर्वेश्वर को बताने के लिए मसूरी गया था। मसूरी क्या गया, वहां से बच कर बड़ी मुश्किल से आया था। वहां जाकर मुझे लगा था, जैसे मैं गोरों के देश में आ गया था। वहां गोरे ऐसे आजादी से घूम रहे थे, पूछो मत। हमारे घर में हमें ही ललकार रहे थे। हालांकि गिनती में मुट्ठी भर थे, इसके बावजूद वे लोग हमारे मुल्क पर राज कर रहे थे। यह पहेली मेरी समझ में आज तक नहीं आई। मलाया जाकर बात समझ में आई, ये लोग केवल हमारे मुल्क पर ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर राज करना चाहते थे। पूरी दुनिया की जमीं हड़पना चाहते थे। हमारे हिंदुस्तान पहुंचने के कुछ समय बाद, जब जापान पर एटम बम गिरा और हिरोशिमा तबाह हो गया। दो-तीन दिन रुक कर फिर से एटम बम गिरा, नागासाकी की तबाही से जापान में हड़कंप मच गया। इसी के चलते जापान ने दूसरे विश्व युद्ध से अपने-आप को अलग कर लिया और हथियार फेंक दिए।
असल में गोरे कौव्वे हैं, किसी को नहीं बख्शते। दो आंखें होने के बावजूद, देखते एक ही आंख से हैं, लेकिन अपनी आंख को 360 डिग्री तक घुमाने में माहिर होते हैं। इन्हीं गोरे कौव्वों की कांव-कांव पूरी दुनिया में सुनाई दे रही थी। हर देश को मिलजुल कर दुनिया को तबाह करने पर तुले हुए थे। कई तरह की बातें दिमाग में चल रही थीं। एक जगह पर आकर जीप की ब्रेक लगी, मैं जैसे तंद्रा से मुक्त हुआ। पता चला हम लोग अमृतसर पार करके वाघा बार्डर के पास पहुंचने वाले हैं। एक जगह पर आकर ड्राइवर ने जीप एक किनारे पर लगा दी और हम लोग जीप से उतर गए।
लाला जी ने कहा, 'आगे का रास्ता, हमें पैदल तय करना है, ताकि किसी को हमारी नकली फौजी होने की भनक भी न लगे।’
हम लोगों ने जीप को वहीं छोड़ा और पैदल ही बढ़ने लगे। हमें देख कर दो फौजी दौड़ते हुए हमारे पास आए और हमारे साथ चल दिए। चलते-चलते दोनों लाला जी से बातचीत करते रहे। अभी कुछ ही दूर गए थे, हमने देखा कुछ फौजी दोनों तरफ से अपनी बंदूकों से फायरिंग कर रहे थे। हम लोग फायरिंग की आवाज सुन कर वहीं रुक गए। गोलियां चलने की आवाज लगातार आ रही थी। कुछ समय के बाद गोलियां चलने की आवाज कम हो गई। पहले लग रहा था, कई गोलियां एक साथ चल रही थींं। धीरे-धीरे गोलियां चलने की आवाज कम हो गई थी। शायद दोनों तरफ बंदूक की गोलियां खत्म हो गई थीं।
सबको घबराया हुआ देख कर लाला जी बोले, 'डरने की बात नहीं है। इस समय दोनों तरफ के फौजी बॉर्डर से पीछे जा रहे हैं। अंधेरा होने के चलते, दोनों तरफ के फौजी दहशत का माहौल बना रहे थे।’
लाला जी की बात सही निकली, हमने पाया, गोलियां चलने की आवाज थम गई थी। हम लोग भी चिंता मुक्त हो गए थे। हमने देखा एक फौजी सभी फौजियों की बंदूकें इकट्ठी करके पीछे जाने के लिए मुड़ रहा था।
इस बीच एक पाकिस्तानी फौजी सीमा पार से भागता हुआ आया और ललकारते हुए बोला, 'बंदूकें तुम्हें नहीं ले जाने दूंगा। मुझे हुक्म है, मैं सारी बंदूकें लेकर वापस लौटूं। आप लोगों की हर हरकत, हम लोग टेलीस्कोप से देख रहे थे। हमारा गोलियां चलाना तो एक तरह का आपको धोखा देकर आपकी बंदूकों को खाली करवाना था।’
वह फौजी उसकी बात सुन कर कुछ नहीं बोला और चुपचाप उसने बंदूकें उसके हवाले कर दीं। वह जानता था, किसी भी बंदूक में गोली नहीं बची थी। वह उनकी चाल को अब समझ गया था।
अभी वह सोच ही रहा था, पाकिस्तानी फौजी ने सारी बंदूकें उठाईं और सरहद की ओर बढ़ना शुरू कर दिया।
अभी वह कुछ कदम गया था, हिंदोस्तानी फौजी ने अपनी जेब से गुलेल निकाल कर पाकिस्तानी फौजी की टांग पर निशाना लगा दिया। जैसे ही टांग पर गुलेल से निकली गोली लगी, पाकिस्तानी फौजी वहीं ठिठक गया। उसने लगातार गुलेल की कई गोलियां उस पर दाग दीं। आखिर वह फौजी सब कुछ छोड़ कर वहीं बैठ गया। सारी बंदूकें भी नीचे गिर चुकी थीं।
कुछ देर के बाद पाकिस्तानी फौजी उठा, उसने उठते ही अपनी जेब से गुलेल निकाली और हिंदोस्तानी फौजी पर तान दी।
देख कर ऐसा लगता था, जैसे नहले को दहला मिल गया हो।
गुलेल जब तनी, हिंदोस्तानी फौजी हैरान हो गया और कुछ नहीं बोला। दोनों एक-दूसरे को हैरानी भरी नजरों से देख रहे थे।
पाकिस्तानी फौजी बोला, 'कैसा संयोग है, दोनों के पास एक जैसा हथियार है। हम दोनों अपने-अपने देश के लिए लड़ रहे हैं। वैसे भी जंग और मोहब्बत में सब जायज होता है। ऐसा करने से मेरी वर्दी पर भी तमगे बढ़ जाएंगे। इसके बावजूद मैं तुम्हारा हाथ देखना चाहता हूं।’
हिंदोस्तानी फौजी ने तुरंत कहा, 'तुम हाथ देख कर क्या करोगे? जो तुम्हारा कर्म है तुम करो, जो मेरा कर्म है मैं करूंगा।’
पाकिस्तानी फौजी फिर बोला, 'क्या तुम्हारे हाथ पर कुछ लिखा हुआ है? अगर हां, मैं जानना चाहता हूं, क्या लिखा हुआ है?’
हिंदोस्तानी फौजी बोला, 'मेरे हाथ पर ओंकार खुदा हुआ है। तुम्हारे हाथ पर अल्लाह खुदा हुआ है?’
पाकिस्तानी फौजी बात सुनते ही बोला, 'तुम अजीत चाचा के बेटे हो।’ कह कर वह हिंदोस्तानी फौजी की तरफ बढ़ने लगा।
उसके पास आते ही उसने कहा, 'अब्बू हमेशा बताते थे, 'हम दोनों के वालिद और सर्वेश्वर चाचा गुलेल चलाने में उस्ताद थे। उनसे अच्छी गुलेल चलाने वाला कोई नहीं था। पढ़ाई में भी होशियार थे। इसी के चलते, फिरंगियों ने उन्हें मलाया भेज दिया था, लड़ने के लिए। तीनों बचपन में इकट्ठे पढ़ते थे। जब मैट्रिक का रिजल्ट आया, तीनों अव्वल दर्जे में पास हुए थे।’
बात करते-करते दोनों ने गुलेल नीचे फेंक दी और गले मिलने लगे। दोनों की आंखों में आंसू थे। मिलने की खुशी थी, लेकिन जिस जगह पर मिले थे, उसका मलाल भी था।
दोनों गले मिल कर एक-दूसरे की पीठ पर हाथ फेरने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे सदियों का प्यार आज ही उमड़ पड़ा है।
रोते-रोते अनवर ने कहा, 'हमें अब जल्दी से अपनी-अपनी जगह पर चले जाना चाहिए। हिंदुस्तान का मुझे पता नहीं, अगर पाकिस्तानी फौजियों को भनक भी पड़ गई, हम लोग मुसीबत में पड़ सकते हैं।’
हम लोगों ने देखा, एक पाकिस्तानी फौजी अफसर, अपनी टुकड़ी के साथ, जल्दी से उनकी तरफ बढ़ रहा था।
अनवर और दमन, जैसे ही एक-दूसरे से बिछुड़ने के लिए दोबारा गले मिले, पाकिस्तानी फौजी अफसर की आवाज आई, 'हमारा शक ठीक निकला। यह हिंदुस्तान की फौज से मिला हुआ है। यह खुद जिंदा रहेगा और हमें मरवा कर छोड़ेगा। यह देश के साथ गद्दारी है। वैसे भी यह पाकिस्तानी नहीं है, मुहाजिर है, मुहाजिर। यह अच्छा मौका है। इन दोनों को गोलियों से सदा के लिए, एक-दूसरे के ऐसा गले लगा दो, दोबारा गले मिलने की नौबत न आए।’
जैसे ही अफसर की आवाज वातावरण में गूंजी अनवर चिल्ला कर बोला,
'एक धरती, एक आसमान था
फिरंगी न आते यहां, कहां पाकिस्तान था
अगर अपने गद्दारी न करते
फिर दुनिया में
हमारा महकता हिंदुस्तान था।’
गोलियों की आवाज ने और अनवर की पंक्तियों ने वातावरण के सन्नाटे को इस कदर चीरा, जैसे आसमान खून के आंसुओं की बरसात कर रहा हो। इससे पहले कुछ और होता, पाकिस्तानी टुकड़ी अपनी जीप में बैठ गई और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए आंखों से ओझल हो गई।
माजरा मेरी समझ में पहले ही आ चुका था, लेकिन मैं कुछ भी न बोलने के लिए बेबस था। मेरे पांव से जमीन खिसक रही थी। मैं वहां से भाग जाना चाहता था। हिंदुस्तानी फौजी, हम से कुछ ही मीटर की दूरी पर खड़े थे। वे भी बेबस थे, क्योंंकि उस समय सभी निहत्थे थे। सारी बंदूकें खाली थीं। मेरे सामने दो लाशें पड़ी थीं। मैं अपने बेटों की लाश के साथ लिपट कर रोना चाहता था, लेकिन नहीं रो सका। अब वह पाकिस्तानी और हिंदोस्तानी फौजियों की लाश थी। उस दिन दो फौजी मरे थे और दोनों ही मेरी आंखें थीं। लेकिन आज की तारीख में, एक आंख हिंदुस्तान की थी, एक पाकिस्तान की। मैं किस आंख से आंसू बहाऊं, समझ नहीं पा रहा था। किसके लिए बहाऊं, यह भी समझ नहीं पा रहा था। मेरे दो बेटे, मेरे सामने दम तोड़ गए थे। मैं बेबस था। वैसे मैं दोनों के हाथ में गुलेल देख कर समझ गया था, लेकिन फिर भी अपनी तसल्ली के लिए देखने चला गया था।
मुझे जाता देख कर एक हिंदोस्तानी अफसर हमारे पास आया और सभी को बोला, 'आगे मत जाना, दुश्मन कहीं भी छुपा हो सकता है। वे लोग दोबारा ज्यादा फौजियों के साथ भी लौट सकते हैं और हम पर हमला कर सकते हैं। आप नहीं जानते इनके मंसूबों को। उन्होंने धोखे से हमारी सारी गोलियां चलवा दीं। कोई बड़ी चाल भी हो सकती है।’
उसकी बात सुन कर मेरे सब्र का बांध टूट गया, और मैं चिल्ला कर बोला था, 'अरे वह मेरा दमन है। मैं अपने दमन से मिलने के लिए जा रहा हूं। अब जिसने जो करना है कर ले। मैं किसी के रोकने पर भी नहीं रुकुंगा।’
जब लाला जी ने दमन का नाम सुना, लाला जी के साथ सब लोग मेरे साथ हो लिए। सब भूल गए थे, कोई दोबारा भी अटैक करने आ सकता है। मैं दमन के साथ लिपट कर रोने लगा। अनवर को हाथ लगाने का अधिकार मुझे नहीं था, क्योंकि फौजियों ने कह दिया था, 'सर इसे कोई हाथ नहीं लगाएगा।’
मैं उसे केवल देख रहा था। मेरे बेटे का शव मेरे सामने पड़ा था, लेकिन मुझे उसे हाथ तक लगाने का अधिकार नहीं था। अब वह पाकिस्तानी फौजी था। मेरा कलेजा निकल कर बाहर को आने को था। मैं खून के आंसू अंदर ही अंदर पी रहा था। फिर मैं हिम्मत करके अनवर के पास तेजी से चला गया।
उसे अपनी बाहों में लेकर बोला, 'यार तुम इतने जालिम कैसे हो सकते हो? तुम क्यों उसके साथ जफ्फी डालने के लिए आ गए? अपनी ड्यूटी करते, कम से कम दोनों की लाश, यहां न बिछी होती। आप दोनों जांबाज सिपाही की तरह मरते। आप लोग प्यार-मोहब्बत में मर गए। कभी किसी को देखा है, अपनी पीठ में खंजर मारते हुए। लोग दूसरों की पीठ में खंजर मारते हैं। तुम ने अपनी ही पीठ में खंजर मारने की कला कहां से सीखी? तुम पाकिस्तान की नजर में आज भी मुहाजिर के अलावा कुछ नहीं हो। मेरा मतलब है, तुम खालिस पाकिस्तानी नहीं हो। मुहाजिर थे, मुहाजिर रहोगे। तुम जैसे लोगों को, पाकिस्तान कभी कुबूल नहीं करेगा।’
मुझे रोता-बिलखता देख कर, सब लोग मेरे पास आए और मुझे दिलासा देने लगे। लाला जी ने कहा, 'अजीत तुम चिंता मत करो, हम तुम्हारे बेटे के लिए सरकार से सिफारिश करके इसे फौज का कोई बड़ा सम्मान दिलाएंगे। इसके नाम की सड़क बनवाने की सिफारिश, मैं सरकार से करूंगा। वह भले शहीद हो गया, लेकिन वह शहीद हो कर भी लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेगा। आखिर जलंधर के आजाद हिंद फौज के जांबाज फौजी अजीत का बेटा है। तुम्हारी कुर्बानियों की दास्तान कम नहीं है। जंगी कैदी बन कर तुमने क्या-क्या नहीं झेला? आजाद हिंद फौज का सिपाही, इतना कमजोर नहीं हो सकता। जिसने कभी अपनी जान की परवाह नहीं की, आज खून के आंसू रो रहा है।’
कहते-कहते लाला जी ने पोजिशन ली और मेरी तरफ देख कर सैल्यूट करके बोले, 'जय भारत, जय मां भारती।’
मैंने देखा लाला जी बोलते-बोलते चुप हो गए थे और उनकी आंखों में भी आंसुओं का सैलाब दिखने लगा था। सब लोग चुप थे और गाड़ी में बैठ कर वापिस जाने की तैयारी करने लगे थे।
मैंने कहा, 'मैं दमन के साथ आऊंगा।’
फौजियों ने मेरी बात सुन कर कहा, 'आप इसके साथ नहीं जा सकते। यहां पूरी कार्रवाई होगी, उसके बाद शव को तिरंगे में लपेट कर आपके घर भेज दिया जाएगा।’
मुझे दोनों देश के झंडों में लिपटे हुए मेमने सजे हुए दिखने लगे। उन्हीं झंडों मेंं लपेट कर उनके घर वालों को सौंप दिया जाएगा। किसी को किसी के साथ कोई हमदर्दी नहीं। एक ही समय में दो मेमनों का कत्ल हुआ था। मुझे लगा जिस दिन विभाजन हुआ था, उस दिन दो देश बने थे, लेकिन आज उन दोनों देशों में एक ही समय में, मैंने अपने दो बेटों को खो दिया। लाहनत है, ऐसे विभाजन पर, ऐसी आजादी पर। जब विभाजन हुआ, तब लोग बात किया करते थे, नेहरू, गांधी और जिन्ना से विभाजन की रेखा, ठीक तरह से खिंच नहीं पाई।
कुछ लोग कहते हैं, 'एक कमरे में बैठ कर रेडक्लिफ ने विभाजन की रेखा खींच दी थी। उसे हिंदुस्तान की ज्योग्राफी का कुछ पता ही नहीं था। अगर पता होता, शायद लोग बंटवारे के समय बलि का बकरा न बनते। यही कारण था, हिंदुस्तान विभाजन के बाद भी दो-तीन दिन के लिए जम्मू-कश्मीर सड़क के रास्ते से कटा रहा। वहां जाने के लिए केवल हवाई जहाज से जाना पड़ना था। उसका कारण था, रेडक्लिफ ने शकूरपुर बस्ती के गुरदासपुर इलाके को पाकिस्तान को दे दिया था। इससे जम्मू-कश्मीर सड़क पर जाने का रास्ता बंद हो गया था। आज सोचता हूं, लगता है, जब बंटवारा कर ही दिया था, मुसलमान पाकिस्तान जाते और हिंदू हिंदुस्तान में रहते। जब भेड़-बकरियां से लेकर हर चीज का बंटवारा हुआ, मुसलमान और हिंदुओं का क्यों नहीं? शायद नेताओं को लगता था, इनके नाम पर ताउम्र रोटियां सेंकी जा सकती हैं।’
इससे पहले मैं कुछ और सोचता, लाला जी मेरे पास आए और मुझे दिलासा देते हुए बोले, 'रात बढ़ रही है। हम लोगों को यहां से चलना चाहिए। हम सब लोग बिना हथियार के हैं। यहां रुकना खतरे से खाली नहीं हैं।’
सोचते हुए कब हम लोग जीप में बैठे, कब जलंधर आया, पता ही नहीं चला। मैं सारे रास्ते यही सोचता रहा, चन्नो को क्या बताऊंगा? मैंने भी सोच लिया था, मन पर पत्थर रख लूंगा। फिलहाल चन्नो को अभी कुछ नहीं बताऊंगा। जब उसका शरीर तिरंगे में लिपट कर आएगा, खुद ही पता चल जाएगा। मुझ में हिम्मत भी नहीं थी, मैं उसे कुछ बता पाता।
मुझे आज भी नहीं भूलता वह दिन, जिस दिन दमन का शव तिरंगे में लिपट कर जलंधर पहुंचा, सारा शहर वहीं इकट्ठा हो गया था। चन्नो दमन की लाश को तिरंगे में लिपटा देख कर रोते-रोते अचानक चुप हो गई थी। लोग उसके मुंह पर पानी का छींटा मारते रहे। वह नहीं बोली। एक बुढ़िया ने उसके मुंह में चम्मच से पानी डालने की कोशिश की, वह भी नाकाम हो गई। ऐसा लग रहा था आसमान खून के आंसू टपकाएगा और धरती फट जाएगी। उस दिन घर से एक नहीं, दो लाशें निकली थीं। सारा जलंधर उस दिन श्मशान घाट पर इकट्ठा हो गया था। कुछ नेताओं ने यहां तक कह दिया, 'अजीत के घर के पास वाला मार्ग दमन के नाम पर रखा जाए। बाप-बेटा दोनों ही फौजी थे। दोनों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
आज पता नहीं, आंखों के किस कोने से आंसुओं का झरना फूट पड़ा था। बेटे को बॉर्डर पर मरता देख कर, मैं छटपटाया तो बहुत था, लेकिन मेरी आंखों से एक बूंद भी आंसुओं की नहीं टपकी थी। मैंने जिंदगी में इतना कुछ झेला था, शायद उसी का नतीजा था। जब दमन को सलामी दी जा रही थी, उस समय फूलों के हार देख कर मेरा मन फूट-फूट कर रोने लगा। फूलों की सुगंध आसमान के सीने के साथ मेरे सीने को भी चीर गई थी। उस दिन लगा था, सुगंध की भी एक आवाज होती है। उस आवाज की गूंज धरती से उठ रही है और आसमान में कहीं विलीन हो रही है। उस सुगंध की आवाज ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया था और मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा था। उस दिन आसमान, धरती, लोग और मैं इकट्ठे मिल कर रो रहे थे। कोई कितनी देर रो सकता है? आखिर आंखों के आंसू भी जवाब दे गए थे। उस दिन के बाद आंखें हमेशा आंसुओं से भरी रहती लेकिन बाहर नहीं गिरते थे। आंसुओं ने भी तमीज से रहना सीख लिया था। आज भी ऐसा ही हो रहा था। मैं सोच रहा था, लेकिन आंसुओं की एक बूंद भी मेरी आंखों से बाहर नहीं गिरी थी। मैंने सोचते हुए अपने सिर को जोर से झटका। सिर को झटकते ही, मेरे ज़ेहन से पुरानी स्मृतियां ओझिल हो गईं।

लेखक के बारे में:
डॉ. अजय शर्मा को केंद्र सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति के नामित सदस्य हैं। हाल ही में उनका उपन्यास “बसरा की गलियाँ” गुरु काशी विश्वविद्यालय के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। यह उनका सातवाँ उपन्यास है जिसे विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान मिला है। इस उपन्यास को अकेले ही तीन अलग-अलग विश्वविद्यालयों के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जो एक अद्वितीय उपलब्धि है। अब तक वे 17 उपन्यास, 6 नाटक और एक कहानी संग्रह लिख चुके हैं। उनके सात उपन्यास विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और कई रचनाएँ देश की विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। उन्हें पंजाब सरकार का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘शिरोमणि साहित्यकार पुरस्कार’, उत्तर प्रदेश सरकार का ‘साहित्यिक सौरभ सम्मान’, तथा केंद्रीय हिंदी निदेशालय का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।
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