कहानी/अपडेट/कमलेश भारतीय 

लेखक एक जाने-माने पत्रकार भी हैं  

कहानी/अपडेट/कमलेश भारतीय 
कमलेश भारतीय।

मैं एक पत्रकार हूं और वक्त की हर करवट से अपडेट रहना यह मेरी आदत है । पाठक को अपडेट करना यह मेरी नौकरी है । यदि चौकन्ना न रहूं तो कुछ भी छूट जाए और एडीटर का एक्सप्लानेशन लैटर मिल जाएगा कि तुम कहां थे ? जब इतनी बडी घटना हो रही थी । सच । पूरी तरह चौकन्ना रहना एक पत्रकार की आदत भी है और मजबूरी भी ।
ऐसे ही एक दिन किसी सोर्स का फोन आया कि मिर्चपुर गांव में दलित बस्ती में आग लगा दी गयी है । एक पिता और उसकी विकलांग बेटी इस आग में जल कर स्वाहा हो गये हैं । बहुत बडी घटना । बहुत बडी बात । 
एडीटर का ऑर्डर कि यदि कुछ बडा घट जाए तो वहां पहुंचने से पहले मुझे अपडेट कर दो ताकि मैं न्यूज रूम को अलर्ट रखूं कि भारती , बडी मछली मारने गया है । उसकी स्टोरी का इंतजार करो और कैरी करो । मैंने सूचित किया पर उस दिन एडीटर किस मूड में था । पता नहीं । पूछा -कितने किलोमीटर होगा यहां से वह मिर्चपुर गांव ? 
-कम से कम सत्तर किलोमीटर । 
- नहीं । फिर ऑन द स्पाॅट न जाकर जो अपडेट सोर्स से मिल रहा है उसी के आधार पर खबर बना दो । खर्च और टीए डीए से बचो ।
मैं हैरान । क्या स्पाॅट पर जाए बिना मैं इस खबर से कोई न्याय कर सकूंगा ? नहीं । मुझे तो गुरुमंत्र ही मिला कि ऑन द स्पाॅट जाकर ही इंसाफ कर सकोगे । सुनी सुनाई बात से धोखा लग जायेगा । पर क्या करूं ? 
मैं सिविल अस्पताल चल दिया । मैं अपने अनुभव से जानता था कि शव पोस्टमार्टम के लिए सिविल अस्पताल ही लाये जायेंगे । और मेरा अनुभव काम आया । सचमुच सिविल अस्पताल में इस बडे कांड के बाद भीड थी छोटे बडे नेताओं की । अंदर पोस्टमार्टम हो रहा था और बाहर बन रही थी रणनीति सरकार को घेरने की । ऐसा मौका विपक्ष कैसे खो दे ? क्यों हाथ से जाने दे ? डीसी की गाडी भी लग गयी थी और दिवंगत का बडा बेटा रोये जा रहा था । पोस्टमार्टम पूरा हुआ । डीसी ने तुरंत दिवंगत के बेटे को अपनी लाल बत्ती वाली गाडी में खींच लिया और ऑर्डर दिया कि डैडबाडीज लेकर गांव आ जाओ ताकि जल्द से जल्द अंतिम संस्कार हो सके और मामला दबाया जा सके । इससे पहले कि गाडी को ड्राइवर स्टार्ट कर पाता छोटे बडे नेताओं ने गाडी का घेराव कर लिया और नारेबाजी के बीच बेटे को गाडी से बाहर खींच लिया । डीसी देखता ही रह गया और इतने में एक दलित की रक्षा के आंदोलन का जन्म हो गया । सरकार चौकन्नी रह कर भी फेल हो गयी । बडा बेटा जो सबसे बडा मोहरा था वह छिटक कर विपक्ष के हाथ लग गया । नारेबाजी के बीच पोस्टमार्टम रूम से शव लेकर भीड गांव की ओर बढ चली । यानी साफ था कि अब इन शवों की माटी खराब होने वाली थी । इन शवों को तब तक रखा जाने वाला था जब तक कि बडी रकम की घोषणा सरकार कर न दे और सरकार की इमेज को बट्टा न लग जाए । यह राजनीति का खेल शुरू हो गया था । कैसे एक घटना को आंदोलन में बदला जा सकता है यह जादूगरी मैंने अपने सामने होती देखी ।
मैं एक रिपोर्टर हूं और मूकदर्शक भी । हमारा भविष्य तो महाभारत के संजय ने तय कर दिया था कि बस अच्छे और बुरे के बीच युद्ध सिर्फ देखना है और सुनाना है । खुद कुछ नहीं करना है । वैसे यह कैसी भूमिका हुई ? महाभारत के समय से यही भूमिका चलती आ रही है पर मैं कभी कभी इसका उल्लंघन कर जाता हूं । 
मैंने प्रदेश के सीएम को फोन लगा दिया । ऐसा नहीं कि उनको अपडेट नहीं था । पूरा था और उनका कहना था कि लोग गुस्से में होंगे और ऐसे में मैं गांव उनके घर गया तो क्या से क्या हो जाए ? मैंने सुझाव दिया कि अभी तो शुरूआत है और गुस्सा सह कर और जो भी राशि परिवार के लिए घोषित करनी है कर दीजिए तो मामला शांत होने की ओर बढ जायेगा । नहीं तो विरोधी इसे हथिया ही चुके हैं और फिर कहां से कहां पहुंच जाए यह कहना और कल्पना करना मुश्किल होगा । वे अपनी चापलूस एजेंसियों पर निर्भर थे और चापलूस मंत्री पर कि आपकी जगह मैं जाता हूं गांव । आप बाद में किसी दिन आ जाना । सारा गुस्सा मैं सह लूंगा ।
बस । यह चूक इतनी भारी पडेगी शायद सीएम ने भी सोचा न होगा । मंत्री महोदय को गांव वालों ने खदेड दिया बुरी तरह । वे अपना विश्वास बनाए न रख सके और उल्टे पांव लौट आए पर तब तक विरोधी पार्टियों को मोर्चा लगाने का पूरा समय मिल गया था । दूसरे दिन भी सीएम नहीं आए । राजधानी में बैठे बैठे ही परिवार के लिए दस लाख रुपये की राहत घोषित कर दी और अग्निकांड के बाद गांव में हुई हिंसा में जो लोग गंभीर रूप से घायल हुए उनके लिए पचास हजार और जो कम से कम घायल हुए उन्हें पच्चीस पच्चीस हजार रुपये  की राशि देने की  घोषणा कर दी । 
इस घोषणा के बावजूद अंतिम संस्कार दूसरे दिन शाम को किया गया और तब तक गांव को दलित और दबंग के अखाडे में बदल  दिया गया था और चैनलों पर रिपोर्टर्ज चीख चीख कर कह रहे थे कि दबंगों ने दलितों की बस्ती में आग लगा दी । देखते देखते गांव का भाईचारा तहस नहस हो गया । एक छोटा सा , साधारण सा गांव देश के चैनलों की  सुर्खियां बन गया । हैडलाइन बन गया । इसी बीच विरोधी पार्टियों ने दलितों को उठा कर जिला सचिवालय के सामने  प्रदर्शन और धरने पर पहुंचा दिया यानी मजमा पूरा जमा दिया । 
आखिरकार घटना थी क्या ? गांव भर में सुना कि दबंगों के परिवार का एक दामाद मोटरसाइकिल के पीछे बैठा था और बाइक सवार उसका रिश्तेदार दलितों की बस्ती से निकल रहा था । इतने में एक पालतू कुतिया अपने जन्मजात स्वभाव से मोटरसाइकिल के पीछे भौंकती हुई दौडी । दामाद कुछ डरा और सोचा कि कहीं काट न ले सो एकदम से बूट की नोक उस पर मार दी । घायल कुतिया किकियाती हुई  गरीब मालिक के पास पहुंची । मालिक को बहुत प्यार था अपनी रूबी कुतिया पर । दो चार लोग इकट्ठे किए और दबंगों के घर चला गया कि देखो कैसे आपके बटेऊ ने हमारी कुतिया को ठोकर मार कर घायल कर दिया । इतनी सी बात का बतंगड बन गया और धक्कामुक्की कर दबंगों ने दलितों को वहां से निकाल दिया पर यह भी सोचा कि दलितों की इतनी हिम्मत कैसे ? हमारे घर एक कुतिया के घायल होने का इल्जाम लेकर आ गये ? इनको इनकी औकात बतानी चाहिए । फिर कभी ऐसी हिम्मत न कर सकें । आंखों ही आंखों में इशारे हुए और कब दलित बस्ती धुआं धुआं हो गयी पता ही नहीं चला । वह तो विकलांग बेटी आग की लपटों से किसी तरह बच कर निकल नहीं सकती थी और बूढा बाप बेटी को जलते देख नहीं सकता था लेकिन मोह का मारा छोड कर जा भी नहीं सकता था । इससे पहले कि परिवार का ध्यान जाता बाप बेटी आग की लपटों में स्वाहा हो गये । सिर्फ विकलांग की तिपहिया साइकिल इस बात की गवाह थी कि वहां कितनी निर्ममता हुई होगी । इस तरह एक कुतिया के काटने के भय मात्र से इतनी बडी घटना घट गयी कि देश की सुर्खियों में छा गयी । चैनल्ज की ओर से लाइव टेलीकास्ट के प्रबंध आनन फानन में हो गये । सबकी नजरें मिर्चपुर के अपडेट पर टिकी थीं ।
घायल अस्पताल में और कम घायल घोषित राशि के लिए छोटी मोटी चोट का प्रदर्शन करते घूम रहे थे या कुछ अपने आप पर चोट मार रहे थे कि एक पट्टी अगर कुछ दिन बंध भी गयी तो पच्चीस हजार तो कहीं नहीं गये । गांव की दलित बस्ती में किसी के सिर , किसी के हाथ पर तो किसी के पैर पर पट्टियां ही पट्टियां दिख रही थीं यानी पच्चीस पच्चीस हजार का सर्टिफिकेट । यह खेल अलग से शुरू हो गया था घायल होने का । सरकार इस घटना से छुटकारा पाना चाहती थी ताकि इसकी इमेज पर असर न पडे और हाईकमान भी नाराज न हो लेकिन हाईकमान को पार्टी के विरोधी ही अपडेट करते जा रहे थे और इस तरह जहां सीएम को विरोधियों के प्रहार सहन करने पड रहे थे वहीं अपनी पार्टी के विरीधियों की चालों से भी सावधान रहना था । सच कितना बडा सच राजनीति का कि विरोधियों से तो बाद में निपट लेंगे पहले अंदर के लोगों से तो निपट लें । 
डीसी ऑफिस के बाहर धरना और विरोधियों की बयानबाजी के बीच आखिर सीएम ने गांव जाकर लोगों के बीच ढाढस बंधाने का फैसला किया । 
सीएम गांव पहुंचे पूरे लाव लश्कर के साथ तो विरोधी पहले ही दलित बस्ती के लोगों को पट्टी पढा चुके थे । सीएम के गाडी से उतरते ही घूंघट काढे महिलाओं की एक टोली ने छाती पीट पीट कर स्यापा शुरू कर दिया । यह भी कहे जा रही थीं कि हमें इस गांव में नहीं रहना । चाहे पाकिस्तान भेज दो लेकिन यहां दबंगों के बीच नहीं रहना । एक चौपाल पर मुश्किल से बात के लिए दलितों को इकट्ठा किया जा सका । सीएम ने परिवार के एक लडके को सरकारी नौकरी , दस लाख रुपये और दलितों को दो दो क्विंटल गेहूं दिए जाने की घोषणाएं कीं । शोरशराबे के बीच कुछ तालियां और फिर धूल उडाती गाडियां गांव की सीमा से ओझल हो गयीं । 
अब एक और दिलचस्प बात सामने आई कि जो वृद्ध व्यक्ति अग्निकांड में जलकर राख हुआ उसकी दो शादियां हुई थीं । बडे बेटे को तो सरकारी नौकरी की घोषणा हो गयी लेकिन वह विधवा बोली कि मुझे क्या मिला ? वह तो दूसरी औरत का बेटा था । पति तो मैंने खोया । मेरे बेटों को सरकारी नौकरी दी जाए नहीं तो मैं धरने से नहीं उठूंगी । लो सरकार के हाथ पांव फूल गये । एक अजब उदाहरण बनने जा रहा था कि एक साथ तीन तीन बेटों को नौकरी दी जाए । साथ ही सरकारी क्वार्टर भी दे दिए । उधर सचिवालय के सामने धरने पर बैठे लोगों को चंदा भी मिलने लगा और गांव का एक बेरोजगार युवा , पढा लिखा रातों रात नेता बन कर उभरा । धुआंधार भाषण । चंदा ही चंदा । कवरेज ही कवरेज । दिल्ली से नेता लोग रोज गांव के दौरे पर आने लगे । बहुत से दलित संगठन रिपोर्ट लेने आते । मुझे भी कभी धरना छोड कर तो कभी दूसरी खबरें छोड कर गांव भागना पडता । कम से कम आधा दर्जन बार तो गांव गया नेताओं की कवरेज करने । देश के सभी बडे दलित नेता दौरे पर आए और हर बार वो छाती पीटतीं औरतें स्यापा करतीं । फिर टूटे और राख हुए मकानों का आंखों देखा हाल सुनाया जाता । बताते कि कैसे दहेज बना रखा था । संदूक खोल कर दिखाते अधजली चुनरियां और लाल जोडे वाले सूट । क्या करें ? कैसे शादी करें ? कैसे टूटे मकान की दीवार बनायें ? हर दलित नेता फायर ब्रांड भाषण देकर चला जाता ।  आज कोई उन बडे नेताओं से पूछे कि मिर्चपुर कहां है तो वे बडे नेता याद कर बता भी न सकेंगे ।  सीएम ने मकानों के पुनर्वास और निर्माण का खर्च देने की घोषणा भी कर दी । पर धरना वहीं का वहीं । प्रदर्शन और नारेबाजी वहीं की वहीं । सीएम का पुतला जलाना जारी । पार्टी के अंदर के विरोधी हाईकमान को भी ले ही आए गांव और सीएम को कानों कान खबर तक नहीं होने दी । ये होती हैं राजनीतिक गोटियां चलने की चाल । खूब कैमरे फ्लैश हुए और लगा कि सीएम तो गये । कुर्सी पर कोई और बैठेगा । पर सब अपनी अपनी चाल पर । कुर्सी सही सलामत । धरना लम्बा खिंचता रहा । आखिर चैनल्ज वाले पीछे हटे और कवरेज कम होते ही युवा नेता बन कर उभरे व्यक्ति ने समझौता किया और अपनी पढाई के आधार पर एक बढिया सरकारी नौकरी पाई और मैदान से कब हट गया किसी को कानों कान खबर भी न हुई । बल्कि खबर तब हुई जब मृतक के बडे बेटे ने चंदा खा जाने का आरोप लगाया । यानी रंग चोखा । बेरोजगारी में चंदा खाया और दबाब बना कर सरकारी नौकरी पाई । क्या खेल रहा फरूखाबादी । 
इधर एक और नेता उठा । उसने गांव के प्रदर्शनकारियों को अपने फार्म पर तम्बुओं में ठिकाना बना दिया कि जब तक आप लोगों को कहीं और बसाया नहीं जाता तब तक मेरे फार्म हाउस में रहो । लो हमारी कवरेज में एक फार्म हाउस भी जुड गया । अब हर दलित नेता उनकी दुर्दशा बयान करने के लिए उस फार्म हाउस को तीर्थ मान कर पहुंचने लगा । टीवी चैनल्ज को भी नया ऐंगल मिल गया स्टोरी दिखाने का । गांव दृश्य से गायब होने लगा और फार्म हाउस देने वाला नेता कवरेज पाकर बडा नेता बनने लगा । चुनाव लडने का आधार बनाने लगा । लडा भी । बेशक हार गया ।
उधर गांव में दबंगों के लडकों की धर पकड बढती गयी । बहुत से लडके गायब ही गये या गांव 
छोड गये और मांएं बेटों को देखने को तरस गयीं । बेटे गांव आते तो धर लिए जाते । गांव में दलितों की सुरक्षा के लिए पूरी एक फौजी टुकडी तैनात कर दी गयी । यानी करोडों रुपये खर्च सिर्फ सुरक्षा पर । सचमुच एक कुतिया को बूट की नोक से मारने की छोटी सी घटना ने गांव की सारी शांति और भाईचारा खत्म कर दिया । बहुत बार पंचायतें और खापें भी जुटीं लेकिन भाईचारा गांव से ऐसे खोया जैसे गधे के सिर से सींग जो फिर कभी नहीं दिखे । इस बीच पांच साल बीत गये । सरकार बदल गयी । और नयी सरकार ने भी गांव के भाईचारे को खोजने की बजाय नयी जगह बसाने का फैसला सुनाया और नये सीएम महोदय उस अलाट की हुई भूमि के पूजन के लिए पहुंचे और इस तरह दलितों के वोट अपने पक्ष में कर लेने की चाल पर मन ही मन मुस्कुराये । 
गांव के दिन तो नहीं फिरे लेकिन राजनीतिक पार्टी के दिन जरूर फिर गये । जैसे इनके दिन फिरे वैसे सब पार्टियों के दिन फिरें ,,,कहानी खत्म नहीं हुई लेकिन यह देश के दूसरे प्रदेशों और दूसरे गांवों में अक्सर पढने सुनने और टीवी चैनल्ज पर देखने को मिल जाती है लेकिन मिर्चपुर में भाईचारा क्यों नहीं लौटा यह कोई यह अपडेट क्यों नहीं कर  पाता ,,,?