ललित बेरी की दो काव्य रचनाएँ
(1)
आज पहली बार यूँ महसूस हुआ,
कि उनकी दुनिया में कोई और भी है...
जो हँसी में छिपा है, खामोशियों में बसा है,
शायद मुझसे भी ज़्यादा उनका अपना है।
उन्होंने कभी वफ़ा का वादा नहीं किया,
पर नज़रों में इनकार भी तो नहीं था,
फिर यह दिल क्यों भर आया आज,
जब झूठ की कोई हल्की सी खुशबू आई थी हवा में कहीं।
उनका मुझसे बोला एक झूठ,
उनसे अनजाने में खुल गया,
सबूत सामने आ गया तो,
सपनों का महल भी ढह गया।
अब लगता है मैं उनकी ज़िंदगी का वो कोना हूँ,
जहाँ कभी-कभी यादें टिक जाती हैं,
पर दिल की मुख्य राहों पर,
किसी और की आहट बस जाती है।
पता नहीं कसूर मेरा है या मुक़द्दर का खेल,
पर एक बात अब साफ़ हो गई ,
प्यार जब अधूरा हो, तो देता है दर्द पूरा,
सच्चाई जब दिखती है, तो करती है सबसे ज़्यादा अंधेरा।
( ललित बेरी)
(2)
अनमोल भाव
मन के मोती, दिल के रत्न,
पलकों पर पले हुए सपनों के संग,
जब थमा दिए उन हथेलियों में,
जो उनकी चमक पहचान न सकीं,
तो मोतियों का भी फीका पड़ गया रंग।
भावनाएँ थीं सुगंध-सी कोमल,
पर रख दीं बंजर ज़मीन पर,
न पानी मिला, न धूप का सहारा,
और फूल बनने से पहले ही
पंखुड़ियाँ गईं बिखर।
जिसे न हो क़द्र,
वह सोने को भी मिट्टी समझता है,
और जिसकी आँखों में संवेदना हो,
वह एक शब्द को भी पूजा बना देता है।
इसलिए...
दिल के अनमोल भाव
उन दिलों में बसाओ,
जहाँ उन्हें समझने की आँखें हों,
और सँभालने के लिए
अनुरागी हाथ।
( ललित बेरी)
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