दुनिया तकनीकी तौर पर निकट आई लेकिन आंतरिक निकटता भी जरूरी : डाॅ वरयाम सिंह 

दुनिया तकनीकी तौर पर निकट आई लेकिन आंतरिक निकटता भी जरूरी : डाॅ वरयाम सिंह 

-कमलेश भारतीय 
दुनिया तकनीकी तौर पर बहुत निकट आ गयी लेकिन आंतरिक तौर पर निकट आना भी जरूरी ! यह कहना है प्रसिद्ध रचनाकार और विशेष तौर पर सोवियत रचनाओं का हिंदी में अनुवाद करने के लिये चर्चित डाॅ वरयाम सिंह का ! जो हिमाचल के कुल्लू के निकट छोटे से गांव बंजार के मूल निवासी हैं और चालीस साल तक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में रूसी विभाग के एसोसिएट प्रोफैसर से लेकर चेयरपर्सन , डीन और टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष तक रहे लेकिन सेवानिवृति के बाद फिर अपने उसी छोटे से गांव बंजार में लौट आये और पिछले दस साल से यहीं प्रकृति के बीच रह रहे हैं । पहली पढ़ाई बंजार के ही स्कूल से हायर सेकंडरी तक । फिर कुछ समय धर्मशाला अंर फिर दिल्ली में एनसीईआरटी की छात्रवृति पर इंस्टीट्यूट ऑफ रशियन स्टडीज में 14 नवम्बर , 1965 को पहले पहले बैच के छात्र रहे । यह इंस्टीट्यूट प्रधानमंत्री लाल बहादुर के रशिया से समझौते के बाद खुला था । आगे फिर स्कॉलरशिप पर चार साल के लिये मास्को भेजे गये । वहां से सन् 1972 में लौटे और जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के रूसी विभाग में एस्सिटेंट प्रोफैसर नियुक्त हुए । फिर दो साल पीएचडी करने भी मास्को गये । पूरे चालीस साल जवाहर लाल विश्वविद्यालय के विभिन्न पर्दो पर रहे । 

-छोटे से गांव बंजार से रुस तक कैसे ? 
-कभी बंजार से मंडी तक मुश्किल से गया था । वही पहाड़ का युवा पठानकोट से दिल्ली तक पहली लम्बी रेलयात्रा कर रुसी पढ़ाई करने निकला और मास्को तक पहुंच गया ।  दिल्ली पहुंचते ही त्रिमूर्ति देखने गया था जो मेरा सपना था । 
-साहित्य की ओर कैसे ?
-मेरे पिता जी गांव के सरपंच बने सन् 1962 में ! तब सरपंच का कोई कार्यालय नहीं होता था । घर ही कार्यालय होता था तो पहले सरपंच से जो दस्तावेज आये उनमें प्रेमचंद, शरतचंद्र और वंकिमचंद्र तक का पूरा साहित्य था जिसे मैंने पढ़ लिया ! इस तरह साहित्य के करीब आ गया । आज सोचता हूं कि गांव में ऐसे समृद्ध पुस्तकालय होने चाहियें ! 
-फिर दिल्ली में कैसे साहित्य के प्रति रूचि और बढ़ी?
-दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ के समारोह में गया जब शंकर कुरूप को सम्मानित किया जाना था । तब अपने सामने देखे -रामधारी सिंह दिनकर , सुमित्रानंदन पंत और बच्चन ! दिल्ली में रहते ही फणीश्वर नाथ रेणु और पानू खोलिया से मुलाकात हुई । पानू का साहित्य भी पहाड़ से गहरे जुड़ा था । बहुत निकट आ गये हम । 
-आपका नाम अनुवाद के लिये जाना जाता है । क्या क्या महत्वपूर्ण अनुवाद किये ?
-मुख्य तौर पर तोलस्ताय, गोर्की और चेखव । वैसे मैं कविताओं का अनुवाद करने का इच्छुक था ।  अलेफ्रांद की जन्मशताब्दी पर उनका साहित्य भी अनुवादित किया । 
-कौन कौन से महत्वपूर्ण पुरस्कार मिले ?
-सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार और हिमाचल की भाषा एवं कला संस्कृति अकादमी का पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार ! बेलारूस के साहित्य के अनुवाद पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद की ओर से भी रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार मिला ।
-अनुवाद में क्या कर पाये ?
-देखिये सोवियत इंडिया मैत्री तो नारे तक सिमट जाते हैं जबकि साहित्य एक ऐसा रास्ता है जो दूरगामी है और कथा साहित्य में बहुत काम हुआ जबकि कविता में कम ! 
-आपके निजी प्रकाशन कितने ?
-तीन पहाड़ी संकलन और दो हिंदी में ! 
-रुसी में कितने ?
-बीस । रूसी ही नहीं बेलारूसी में भी । यह अलग भाषा है । एक ओसेतिया भी है जिसकी भाषा संस्कृत के बहुत निकट है । 
-अनुवाद से क्या लगता है आपको कि क्या जादू हुआ ?
-दुनिया बहुत निकट आ गयी । तकनीकी स्तर पर लेकिन अभी आंतरिक स्तर पर नहीं आई । 
-आपकी फेसबुक से पता चला कि तैरना बहुत पसंद है । 
-जी । बंजार में ही दोस्तों के साथ सीखा । फिर मास्को में भी जारी रहा । इलाहाबाद के संगम पर भी नाव से कूद गया तो नाव पर सवार पंडित घबरा गये और मैं नाव की परिक्रमा कर नाव में लौट आया सकुशल ! 
-और क्या शौक हैं ?
-देवयात्रा में शामिल होता हूं जिससे संस्कृति को निकट से जान सकूं ! 
-परिवार के बारे में ?
-पत्नी तारा नेगी । एक बेटा रोहित नेगी जो दिल्ली में अम्बेडकर विश्वविद्यालय में कार्यरत है । पोती समारा । 
-लक्ष्य क्या ?
-पहाड़ी बोली का कोई व्याकरण नहीं है । इसका व्याकरण तैयार करना ! 
हमारी शुभकामनायें डाॅ वरयाम सिंह को ।