संरक्षा, दायित्व और जन विश्वास - नए अधिनियम से क्या हासिल होगा
जनता का विश्वास हमेशा से भारत के परमाणु कार्यक्रम की आधारशिला रहा है। देश के सतत, समतापूर्ण और ऊर्जा-सुरक्षित विकास के दृष्टिकोण में यह आधार निहित है कि परमाणु ऊर्जा का उपयोग अत्यधिक संरक्षा, निर्विवाद उत्तरदायित्व और पारदर्शी संचार के साथ किया जाए। संरक्षा, दायित्व और जन विश्वास के स्तंभ केवल अमूर्त आदर्श नहीं हैं; ये भारत के परमाणु उद्योग के व्यावहारिक आधार हैं।
लेखक: डा. रतन कुमार सिन्हा, पूर्व सचिव, परमाणु ऊर्जा विभाग एवं पूर्व अध्यक्ष, परमाणु ऊर्जा आयोग
जनता का विश्वास हमेशा से भारत के परमाणु कार्यक्रम की आधारशिला रहा है। देश के सतत, समतापूर्ण और ऊर्जा-सुरक्षित विकास के दृष्टिकोण में यह आधार निहित है कि परमाणु ऊर्जा का उपयोग अत्यधिक संरक्षा, निर्विवाद उत्तरदायित्व और पारदर्शी संचार के साथ किया जाए। संरक्षा, दायित्व और जन विश्वास के स्तंभ केवल अमूर्त आदर्श नहीं हैं; ये भारत के परमाणु उद्योग के व्यावहारिक आधार हैं।
जैसे-जैसे हम परमाणु ऊर्जा के लिए एक नए विधायी ढाँचे पर विचार कर रहे हैं, यह पूछना ज़रूरी है कि यह नए अधिनियम से क्या हासिल होगा? मेरे विचार से, इसका उत्तर इन्हीं आधारों को मज़बूत करने में निहित है। इस कानून से अपेक्षा है कि यह जनता के विश्वास से समझौता किए बिना संरक्षा और सशक्तिकरण प्रदान करे, सरलीकरण और सुरक्षा प्रदान करे, नवाचार को प्रोत्साहित करे।
संरक्षा - पूर्णता की संस्कृति को संस्थागत बनाना
परमाणु प्रौद्योगिकी में संरक्षा डिज़ाइन का एक अनिवार्य अंग ही नहीं, बल्कि यह इसका मूल दर्शन होना चाहिए। ट्रॉम्बे में भारत के पहले अनुसंधान रिएक्टरों से लेकर स्वदेशी 700 मेगावाट दाबित भारी पानी रिएक्टरों और अगली पीढ़ी के प्रगत रिएक्टरों तक, डिज़ाइन हमेशा गहन संरक्षा और निश्चेष्ट संरक्षा विशेषताओं द्वारा निर्देशित रही हैं।
जब हमने प्रगत भारी पानी रिएक्टर (AHWR) की कल्पना की थी, तो हमारा लक्ष्य न केवल थोरियम के उपयोग को प्रदर्शित करना था, बल्कि यह भी प्रदर्शित करना था कि एक रिएक्टर इसके ऑपरेटर के हस्तक्षेप के बिना भी सुरक्षित रह सकता है – एक ऐसी डिजाइन जो स्वत: सुरक्षित (walk-away safe) हो। वास्तव में, संरक्षा परमाणु ऊर्जा परिनियोजन का एक अभिन्न अंग है।
नए अधिनियम को, निश्चित रूप से, यह गारंटी देनी चाहिए कि संरक्षा-संस्कृति जारी रहे। इसे उच्चतम संरक्षा मानकों के प्रति भारत की अटूट प्रतिबद्धता की पुष्टि करनी चाहिए और नियामक संस्थानों की स्वायत्तता, अधिकार और जवाबदेही को मजबूत करना चाहिए। इसे आवश्यकतानुसार प्रौद्योगिकी उन्नयन और पारदर्शी संरक्षा समीक्षाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसे प्रचालन प्रदर्शन पर सूचना के आदान-प्रदान को भी बढ़ावा देना चाहिए।
किसी भी उद्योग में विशेषकर परमाणु ऊर्जा के मामले में तो और भी ज़्यादा, संरक्षा एक स्थिर लक्ष्य नहीं है। इसे एक ऐसी संस्कृति के रूप में देखा जाना चाहिए जिसका निरंतर पोषण किया जाना चाहिए। ख़ास तौर पर परमाणु पारिस्थितिकी तंत्र के मामले में, इस संस्कृति को एक संस्थागत फ्रेमवर्क के ज़रिए मज़बूत किया जाना चाहिए।
दायित्व - स्पष्टता के साथ उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना
नाभिकीय क्षति के लिए असैन्य दायित्व अधिनियम (सीएलएनडी अधिनियम) एक अग्रणी कदम रहा है जिसने तीन महत्वपूर्ण हितों को संतुलित किया है: जनता की संरक्षा, आपूर्तिकर्ताओं को आश्वासन और ऑपरेटरों का विश्वास। इसने दोष-रहित दायित्व सिद्धांत को प्रतिपादित किया और यह सुनिश्चित किया कि ऑपरेटर की ज़िम्मेदारी स्पष्ट और निर्देशित रहे।
ऊर्जा परिदृश्य और औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र के विकास ने संबंधित संस्थाओं की देनदारियों पर अधिक स्पष्टता को आवश्यक बना दिया है। इस तरह के संशोधन किसी भी परिपक्व क्षेत्र की स्वाभाविक प्रगति का हिस्सा हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि शासन का फ्रेमवर्क वैज्ञानिक प्रगति और सामाजिक अपेक्षाओं के साथ तालमेल बनाए रखे।
नए अधिनियम को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शासन का फ्रेमवर्क निष्पक्ष, स्पष्ट हो और संदेह रहित बना रहे, साथ ही जवाबदेही की एक सुपरिभाषित श्रृंखला भी बनाए रखे। इसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि दायित्व का मूल्यांकन करने की व्यवस्था देश में परमाणु तैनाती की सीमा और पैमाने के अनुरूप हो। एक आधुनिक दायित्व व्यवस्था को इस बात की पुष्टि करनी चाहिए कि संरक्षा और ज़िम्मेदारी विकास के साथ-साथ चलती हैं।
जन विश्वास - प्रगति की आधारशिला
दुनिया भर में परमाणु उद्योग के उत्कृष्ट संरक्षा रिकॉर्ड के बावजूद, परमाणु ऊर्जा के प्रति जनता का दृष्टिकोण अक्सर वैज्ञानिक तथ्यों की तुलना में धारणाओं से अधिक प्रभावित होता रहा है। कुछ साल पहले मैंने जिस पुस्तक का सह-लेखन किया था, "द अनरीज़न्ड फियर ऑफ़ रेडिएशन", ऐसी ही भ्रांतियों को दूर करने का एक प्रयास था। यह पुस्तक बताती है कि नियंत्रित और सुव्यवस्थित वातावरण में विकिरण, किसी भी अन्य तकनीक जितना ही सुरक्षित है जिसका उपयोग हम अपने दैनिक जीवन में नियमित रूप से आत्मविश्वास से करते हैं।
जनता का विश्वास केवल पारदर्शिता और जनता के साथ संवाद के माध्यम से ही अर्जित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब नागरिक देखते हैं कि परमाणु विज्ञान रेडियोथेरेपी के माध्यम से जीवन बचा रहा है, उत्परिवर्तन प्रजनन के माध्यम से फसलों को बढ़ा रहा है या विकिरण शुद्धिकरण के माध्यम से सुरक्षित जल उपलब्ध करा रहा है, तो वे परमाणु ऊर्जा के मानवीय पहलू से जुड़ने लगते हैं। परमाणु ऊर्जा विभाग में अपने कार्यकाल के दौरान, हमने नई आउटरीच रणनीतियों की शुरुआत करके इस दिशा में कई प्रयास किए, जिसके परिणामस्वरूप 2015 की गणतंत्र दिवस परेड में परमाणु ऊर्जा विभाग की झांकी प्रदर्शित की गई और प्रसारण व सोशल मीडिया पर उपस्थिति दर्ज कराई गई। ये कदम दिखावटी नहीं थे; इनका उद्देश्य विज्ञान और समाज के बीच की दीवार को हटाना था।
यदि नया अधिनियम नागरिकों के साथ खुले संवाद को बढ़ावा दे पाता है, तो यह समाज के साथ विज्ञान के सामाजिक संबंधों को पुनर्परिभाषित करेगा। ऐसा करके, यह हमारे चिरस्थायी आदर्श वाक्य: राष्ट्र की सेवा में परमाणु, की भावना को साकार करेगा। नए अधिनियम से यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस प्रकार के संदेश सार्वजनिक प्रकटीकरण को अनिवार्य बनाएं, शैक्षिक जागरूकता को प्रोत्साहित करें तथा नागरिकों के साथ संवाद को संस्थागत कार्य प्रणाली का अभिन्न अंग बनाएं।
नए अधिनियम में क्या गारंटी होनी चाहिए
यदि 1962 के प्रथम परमाणु ऊर्जा अधिनियम ने क्षमता निर्माण के मूल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया था, तो नए अधिनियम का उद्देश्य आत्मविश्वास बढ़ाना और परमाणु प्रौद्योगिकी की बड़े पैमाने पर तैनाती करना होना चाहिए। इसमें उस राष्ट्र की परिपक्वता प्रतिबिंबित होनी चाहिए जिसने जटिल तकनीकों में महारत हासिल की है और जिम्मेदार आचरण के माध्यम से वैश्विक सम्मान अर्जित किया है। नए अधिनियम को विज्ञान और समाज के बीच पारस्परिक आश्वासन की यह गारंटी देनी चाहिए कि:
संरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी, दायित्व (देनदारियां) हमेशा न्यायसंगत और पारदर्शी रहेगा, और जनता का विश्वास हर निर्णय के केंद्र में रहेगा। जब ये गारंटियां न केवल कानून में, बल्कि संस्थागत व्यवहार में भी निहित होंगी, तो भारत का परमाणु भविष्य सुदृढ़ आधार पर खड़ा होगा।
विकसित भारत की ओर बढ़ते कदम
भारत के परमाणु कार्यक्रम के लिए यह एक परिवर्तन का दौर है। बड़े विद्युत संयंत्रों के अलावा, छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर और प्रगत थोरियम प्रणालियाँ परमाणु ऊर्जा की पहुँच का विस्तार करेंगी। इसलिए नए अधिनियम को एक ऐसे फ्रेमवर्क की गारंटी देनी चाहिए जो प्रौद्योगिकियों के तेज़ उपयोग को सुगम बनाए और साथ ही स्वदेशी अनुसंधान एवं विकास तथा विनिर्माण को प्रोत्साहित करे। इसमें नियामकों, प्रचालकों और उद्योग के बीच निर्बाध समन्वय और भविष्य के नवाचारों को शामिल करने के लिए लचीलापन सुनिश्चित करना चाहिए।
संक्षेप में, नए अधिनियम को परमाणु पुनर्जागरण के लिए एक अनुकूल पृष्ठभूमि तैयार करनी चाहिए जो भारत में जलवायु लक्ष्यों और विकसित भारत @2047 बनने की राह में स्वच्छ-ऊर्जा के क्षेत्र में भारत को विश्व का अग्रणी देश बनने की आकांक्षाओं के अनुरूप हो।
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