रमेश बतरा: होलियों में भर आती हैं आंखें 

रमेश बतरा: होलियों में भर आती हैं आंखें 
रमेश बतरा।

-*कमलेश भारतीय 
होली फिर आ रही है और धुन सुनाई दे  रही है -होलिया में उड़े रे गुलाल ...पर दिल कहता है होलिया में भर आती हैं आंखें हर बार , हर बरस । रमेश बतरा को याद करके । मेरी रमेश बतरा से दोस्ती तब हुई जब वह करनाल में नौकरी कर रहा था और 'बढ़ते कदम' के लिए रचना भेजने के लिए खत आया था । अखबार के साइज की उस पत्रिका के प्रवेशांक में मेरी रचना को स्थान मिला था और हमारी खतो खतावत चल निकली थी । 

फिर रमेश बतरा का तबादला चंडीगढ़ हो गया । इतना पता है कि सेक्टर आठ में उसका ऑफिस था और मैं बस अड्डे से सीधा या उसके पास या फिर बस अड्डे के सामने सुरेंद्र मनन और नरेंद्र बाजवा के पास पहुंचता । शाम को हम लोग इकट्ठे होते अरोमा होटल के पास बरामदे में खड़ी रेहड़ी के पास । वहीं होती कथा गोष्ठी और विचार चर्चा । इतनी खुल कर कि यहां तक भी कह दिया जाता कि इस रचना को फाड़कर फेंक दो या इतनी प्रशंसा कि इसे मेरी झोली में डाल दे , साहित्य निर्झर में ले रहा हूं । शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड ने रमेश बतरा को साहित्य निर्झर की कमान सौंप दी थी । हर वीकेंड पर मेरा चंडीगढ़ आना और रमेश के सेक्टर बाइस सी के 2872 नम्बर घर में रहना तय था और साहित्य निर्झर की लगातार बेहतरी की चर्चायें भी । यहीं अतुलवीर अरोड़ा, राकेश वत्स और जगमोहन चोपड़ा से भी नजदीकियां हुईं । तीनों के स्कूटरों पर हम लोग पिंजौर गार्डन भी मस्ती करने जाते ।

सेक्टर इक्कीस में प्रिटिंग प्रेस थी और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब लघुकथा विशेषांक निकल रहा था तब उसी प्रेस में बैठे मैंने उस टीन की प्लेट पर कागज़ रख लिखी थी -कायर । जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और बोला था कि जहां जहां संपादन करूंगा यह लघुकथा जरूर आयेगी । यह थी उसकी अच्छी रचना के प्रति एक संपादक की पैनी नजर । बहुत से नये कथाकार बनाये इस दौरान । चित्रकारों व फोटोग्राफर्स को भी जोड़ा।  कितने सुंदर कवर चुनता था । पानी की टोंटी पर चोंच मारती चिड़िया का चित्र आज तक याद है । नये से नये कथाकार जोड़ता चला गया । एक काफिला बना दिया -महावीर प्रसाद जैन , अशोक जैन , नरेंद्र निर्मोही , मुकेश सेठी , सुरेंद्र मनन , नरेंद्र बाजवा , गीता डोगरा , प्रचंड , तरसेम गुजराल और संग्राम सिंह आदि । चंडीगढ़ की साहित्यिक गोष्ठियों में भी साहित्य निर्झर में प्रकाशित रचनाकारों को चर्चा मिलती रही । धीरे धीरे सभी लोग हिंदी साहित्य में छा गये । 
रमेश फिल्म देखते समय विज्ञापनों को बहुत ध्यान से देखता और कहता कि कम शब्दों में अपनी बात कहनी सीखनी है तो विज्ञापनों से सीखो । लघुकथा में इसीलिए वह सबसे छोटी लघुकथा दे पाया -रात की पाली खत्म कर जब एक मजदूर घर आया तब उसकी बेटी ने कहा कि एक राजा है जो बहुत गरीब है । बताइए यह प्रयोग किसके बस का था ? चंडीगढ़ में संगठन खड़ा करने , एक नये आंदोलन जैसा माहौल बनाने के साथ साथ लघुकथा को नयी दिशा देने का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता । साहित्य निर्झर व शुभतारिका  के लघुकथा विशेषांक इसके योगदान के अनुपम उदाहरण हैं । खुद लिखना और सबको लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहने की कला रमेश बतरा में ही थी । चंडीगढ़ रहते रमेश बतरा एक अगुआ की भूमिका में था और उसकी पारखी नज़र को देखते कमलेश्वर ने भी सारिका में उपसंपादक चुन लिया । मुम्बई जाकर भी रमेश पंजाब , चंडीगढ़ व हरियाणा के रचनाकारों को नहीं भूला । वह वैसे ही यारों का यार बना रहा और सारिका में सबको यथायोग्य स्थान  मिलता रहा । मुझसे कुछ विशेषांक के लिए कहानियां लिखवाई जिनमें एक है -एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा । पंजाबी से श्रेष्ठ रचनाओं के अनुवाद कर प्रकशित किये । वह हिंदी पंजाबी कथाकारों के बीच पुल बना । कितनी यादें हैं और जब मुझे दैनिक ट्रिब्यून में कथा कहानी पन्ना संपादित करने को मिला तो नये रचनाकारों को खोज कर प्रकाशित करने और आर्ट्स काॅलेज से नये आर्टिस्ट के रेखांकन लेकर छापने शुरू किये जो रमेश से ही सीखा जो बहुत काम आया । 

अब रमेश नहीं है और उसकी चेतावनी भी नहीं कि अगर नयी कहानी लिखकर नहीं लाये तो मुंह मत दिखाना । इसी चेतावनी ने न जाने कितनी कहानियां लिखवाईं । 

फिर तीन वर्ष मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में रहा तब रमेश और वे अरोमा के पीछे के बरामदे देखने जरूर जाता था पर रमेश कहीं नहीं मिला । बस । सूनापन और सन्नाटा ही मिला । काश , होलिया में गुलाल उड़ा पाता पर रमेश को याद कर भर भर आती हैं आज भी आंखें । कहां चले गये यार रमेश ?

-*पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।