मनुष्य जैसी रचनात्मक नहीं हो सकतीं मशीनें

मनुष्य जैसी रचनात्मक नहीं हो सकतीं मशीनें

नरविजय यादव

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तेजी से पांव पसार रही है और दिन ब दिन पहले से अधिक ताकतवर होती जा रही है। यह मानव मस्तिष्क का मशीनी रूप है, जिसकी मदद से बहुत से अच्छे काम भी हो रहे हैं। मेडिकल साइंस और कंप्यूटर साइंस में एक के बाद एक एआई के नए प्रयोग सामने आ रहे हैं। आपके स्मार्टफोन को स्मार्ट कहा ही इसलिए जाता है कि यह एआई की ताकत से संचालित है और पलक झपकते ही आपके ढेरों असंभव काम कर डालता है। अकेले स्मार्टफोन ने ही वर्षों से चली आ रहे अनेक उपकरणों और तकनीकों की छुट्‌टी कर दी। अब समय देखने के लिए न आप घड़ी पहनते हैँ और गाने सुनने के लिए न ही रेडियो या टेपरिकॉर्डर पर निर्भर हैं। कैमरा तो पहले ही सीन से गायब हो गया है। अकेला मोबाइल फोन ही ढेरों काम कर रहा है और उसके पीछे यही एआई की शक्ति काम कर रही है। एआई के बारे में इतना तो तय है कि यह हमारी जिंदगी में कितनी भी दखल दे ले, परंतु कुछ चीजें ऐसी हैं जो मानव ही अच्छी तरह से कर सकता है। इनमें रचनात्मकता, समानुभूति (एम्पेथी), इमोशनल कोशेंट (ईक्यू) और जटिल समस्याओं के समाधान खोजना आदि प्रमुख हैं। 

1995 या उसके बाद जन्मे बच्चे अब जवान हो चुके हैं और 25 से 35 साल की उम्र के हैं। जेनेरेशन जेड कहलाने वाले इन युवाओं के मामले में एक बात बड़ी स्पष्ट है कि ये इंटरनेट पर जरूरत से ज्यादा निर्भर रहते हैं। इनसे पिछली पीढ़ी के लोग जहां गुणा-भाग या रोजमर्रा हिसाब किताब के लिए अपनी याददाश्त पर भरोसा करते थे और ज्यादातर हिसाब किताब अपने दिमाग से करते थे, वहीं जेनेरेशन जेड के युवा बिना स्मार्टफोन या इंटरनेट के एक कदम भी नहीं चल पाते हैं। उन्हें साधारण जोड़-घटाने के लिए कैलकुलेटर चाहिए और छोटी बड़ी हर समस्या का समाधान इंटरनेट पर चाहिए। इस जेनेरेशन के 40 प्रतिशत युवा ऐसे हैं जो हर दिन चार घंटे से अधिक समय इंटरनेट पर बिताते हैं और अपने रोजमर्रा के फैसले लेने के लिए इंटरनेट का ही सहारा लेते हैं। इस पीढ़ी ने कोविड के समय इंटरनेट के माध्यम से ही बाहरी दुनिया से संपर्क बनाए रखा। लॉकडाउन का समय ऐसा था कि बाहर कहीं जाना संभव नहीं था और आपसी संपर्क भी टूट ही चुके थे, ऐसे में दवाएं मंगाने से लेकर आवश्यक वीडियो अथवा जूम मीटिंग तक करके इन युवाओं ने कामकाज की गति को बनाए रखा।

जेनेरेशन जेड को हर समस्या का समाधान इंटरनेट में ही नजर आता है और वे इसे सूचना का सबसे प्रभावी और विश्वसनीय स्रोत मानते हैं। तरह तरह के ऐप्स आ जाने के बाद तो इनका जीवन और भी आसान हो गया है। रात के दो बजे पिज्जा मंगाना हो या वीकेंड पर छुट्‌टी बिताने के लिए विमान या होटल की बुकिंग करनी हो, सब कुछ तो ऑनलाइन हो जाता है और भरोसे के साथ भी, तो कहीं और भटकने की क्या जरूरत? अधिक ऑनलाइन रहने के अपने नुकसान भी सामने आ रहे हैं जैसे कि ऐसे हर तीन युवाओं में से एक को डिप्रेशन, चिंता या तनाव की समस्या रहती है। फिर भी यह पीढ़ी सामाजिक या व्यावसायिक हर तरह के कार्यक्रमों में सोशल मीडिया के जरिए हिस्सा लेना पसंद करती है। रिश्ते बनाने के लिए भी यह पीढ़ी उन लोगों को पसंद करती है जो उसे ऑनलाइन माध्यमों से मिले होते हैं।

मोबाइल और इंटरनेट चाहे जितना प्रयोग कर लो, प्राकृतिक वातावरण में रहने के अपने ही फायदे होते हैं। एशिया व यूरोप के अनेक देशों में 80 फीसदी स्कूली बच्चों की दूर की नजर कमजोर पाई गई है। आधुनिक रहन-सहन और हाई कैलोरी युक्त भोजन के चलते डायबिटीज, मोटापा और हृदय रोग तो थे ही, नजर कमजोर होने की नई समस्या सामने आई है। इसके पीछे कारण यह रहा है कि आजकल के बच्चे अपना ज्यादातर समय कम रोशनी में बिताते हैं और बाहर सूर्य की रोशनी में कम ही रहते हैं। दूर की नजर कमजोर होने को मायोपिया कहा जाता है। इसके नुकसान बड़े होने पर भी पीछा नहीं छोड़ते हैं। ऐसे बच्चे पढ़ाई में पिछड़ते जाते हैं और कॉन्टेक्ट लेंस अथवा नजर का चश्मा को पहनने को मजबूर होते हैं। इसके अलावा, मोबाइल फोन के अधिक इस्तेमाल से होने वाले नुकसान तो जगजाहिर हैं। पबजी जैसे मोबाइल गेम बच्चों को हिंसक बना रहे हैं। आए दिन ऐसी खबरें सामने आती हैं जिनमें बताया गया होता है कि किसी बच्चे ने अपने माता-पिता, शिक्षक या साथ के बच्चों को गोली मार दी। एक बच्चा तो रात में पबजी खेलने के लिए अपने माता-पिता को नशीली गोलियां खिला देता था, जिससे कि वे सोते रहें और बच्चा बेरोकटोक मोबाइल पर हिंसक खेल खेलता रहे। 

आउटडोर खेलों के अपने फायदे हैं, तो इन्डोर में भी कुछ गतिविधियां ऐसी हैं जिनसे दिमाग पर अच्छा असर पड़ता है और कुछ मेडिकल समस्याओं का समाधान भी मिलता है। ड्रम बजाना एक ऐसी ही गतिविधि है जिसमें म्यूजिक के अलावा एक मेडिकल बेनिफिट भी सामने आया है। लंदन के किंग्स कॉलेज में हुए एक ताजा अनुसंधान से पता चला है कि ड्रमिंग ऐसे बच्चों के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकती है जो ऑटिज्म बीमारी से पीड़ित हैं और जिनके दिमाग व अन्य शारीरिक अंगों के बीच उचित तालमेल नहीं बैठ पाता है। ड्रम बजाते समय व्यक्ति का दिमाग, हाथ, पैर सभी कुछ एक साथ मिलकर काम करते हैं, इसीलिए ड्रमिंग से ऑटिज्म पीड़ित बच्चों की शारीरिक हालत में सुधार देखा गया। इससे दिमाग में फंक्शनल कनेक्टिविटी बढ़ती है।

बाजार और बिजनेस में विज्ञापन का बड़ा महत्व है। आम नागरिकों के लिए भी विज्ञापन जानकारी प्रदान करने का कार्य करते हैं। तभी तो लोग टीवी या मोबाइल पर विज्ञापन देखना पसंद करते हैं। कुछ सेकेंड या मिनट का एक विज्ञापन तैयार करने में कई बार बहुत पैसा और परिश्रम लगता है। वजह यह कि कुछ ही सेकेंड में वह बात दर्शक तक पहुंचानी होती है जिसे एक मूवी एक-दो घंटे में पहुंचा पाती है। परंतु सोडा की बोतल दिखा कर शराब का विज्ञापन करना या इलायची दिखाकर गुटखा का विज्ञापन करना धोखाधड़ी है। इसे सरोगेट एडवर्टाइजिंग कहा जाता है, जो कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए छिप कर की जाती है। केंद्र सरकार के उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं।

लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार एवं कॉलमिस्ट हैं।