लघुकथा/ करौंदे का पेड़
मेरे दोस्त को लगातार दूसरे वर्ष दुःख झेलना पड़ा। पिछले साल पिता स्वर्ग सिधार गए थे तो इस बार माँ। मैं उनके शहर में मकान ढूंढता हुआ पहुंचा। शोक की लहर में पूरा परिवार चुप बैठा था। दोस्त ने बताया कि हम दो भाई तो चंडीगढ़ में हैं और एक भाई कोटा में तो एक भाई हैदराबाद में। पिछले वर्ष पिताजी नहीं रहे तब तक तो माँ इस घर में थी तो आना जाना लगा रहता था। कुछ उनकी बीमारी की खबर लेने तो कुछ उन्हें अकेलापन महसूस न हो, इसलिए हममे से किसी न किसी भाई का परिवार आता रहता था।
कुछ रुक कर दोस्त ने कहा कि अब किसके लिए आयेंगे और कौन बसेगा? सब अलग अलग शहरों में बस चुके हैं। पिताजी ने अपनी छोटी सी नौकरी में कितने चाव से यह मकान बनवाया था और उनका कितना मान सम्मान था। पिताजी थे तो सभी भाई दीवाली के अवसर पर हर हाल में यहाँ पहुंचा करते। इक्कठे दीवाली मनाते। लगता है इस मकान की भी अब यादें ही शेष रह जायेंगी।
कुछ देर बाद जब मैं चलने लगा तब नम आंखों से मेरा दोस्त मुझे बाहर तक छोड़ने आया। उसकी नजर क्यारी में लगे करौंदे के पेड़ पर गयी और उसने आह भर कर कहा..... जानते हो, यह पेड़ मेरी माँ के हाथ का लगाया हुआ है। इससे माँ की याद आती रहेगी। मैं बाहर निकल आया और सोचने लगा ......माँ तो अब रही नहीं, करौंदे का पेड़ कब तक रहेगा?
-कमलेश भारतीय
Kamlesh Bhartiya 

