मेरी यादों में जालंधर - भाग नौ

पुराने चावलों जैसे महकते दोस्त....

मेरी यादों में जालंधर - भाग नौ

-कमलेश भारतीय

आज फिर जालंधर की सुनहरी, कुछ ह़सातीं, कुछ रुलातीं यादों की ओर‌ एक बार फिर! अपनी पीढ़ी के रचनाकारों को मैं बराबर याद कर‌ रहा हूँ और वे सब अब पुराने चावलों जैसे महकते हैं! वैसे तो मैने प्रसिद्ध उपन्यासकार व जालंधर दूरदर्शन के समाचार संपादक रहे जगदीश चंद्र वैद जी का उल्लेख पहले  कर चुका हूँ और उनसे मिले प्रोत्साहन को भूला नहीं ! वे पंजाब के ग्रामीण अंचल‌ पर उपन्यास 'धरती धन न अफ्ना' लिखकर प्रसिद्धि के शिखर को छूने में उसी तरह सफल रहे जैसे अपने समय के लोकप्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद अपने उपन्यास 'गोदान' के लिए ऐसे प्रसिद्ध हुए कि उनकी जैसी ऊंचाई तक पहुंचना किसी लेखक के बूते की बात नही थी लेकिन ' धरती धन न अपना' भी बहुत सी भाषाओं में अनुवादित हुआ! आज उनकी बेसाख्ता याद इसलिए आई कि क्या उनकी तरह आज पंजाब में कोई उपन्यास लिख रहा है? जी हां,हैं न मेरी पीढ़ी के, मेरे सहयात्री डाॅ  विनोद शाही! वे पटियाला रहते थे, फिर हिंदी प्राध्यापक के रूप में काफी समय जालंधर और होशियारपुर रहे और कई वर्ष जालंधर में रहने के बाद‌ आजकल‌ गुरुग्राम में अपने बेटे के पास शिफ्ट हो गये हैं यानी वे भी मेरी तरह हरियाणवी रंग में रग गये हैं! उपन्यासों की चर्चा चली तो बता दूँ कि डाॅ विनोद शाही ने दो उपन्यासों- ईश्वर का बीज और निर्बीज की रचना की है! वैसे कथा लेखन में निरंतर सक्रिय हैं और इनके चार‌ कथा संग्रह भी हैं, जिनमें 'श्रवण कुमार की खोपड़ी' बहुचर्चित रही और अभी इन वर्षों में 'हंस' में प्रकाशित कहानी 'बाघा वाॅर्डर' मेरी प्रिय कहानियों में शामिल हैं! आजकल ज्यादा चर्चा इनके आलोचना क्षेत्र में है रही है और कम से कम पच्चीस आलोचना पुस्तकें हिंदी साहित्य को दे चुके हैं! बहुआयामी लेखन और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी शाही को अनेक सम्मान मिले हैं। हाल ही में चंडीगढ़ में इन्हें 'आधार सम्मान' से सम्मानित किया गया! मुझे इस मित्र की एक नसीहत नही भूलती, जब मेरे प्रथम लघुकथा संग्रह-मस्तराम ज़िदाबाद पर जालंधर में आयोजित विचार चर्चा में कहा कि कमलेश की लघुकथाएं बहुत शानदार हैं लेकिन ये अंत में पौराणिक कथाओं की तरह ज्ञान बांटते की तरह कोई शिक्षा देने की मोमबत्ती क्यों जला देते हैं! ऐसे ही सच्चे दोस्त और आलोचक होने चाहिएं  । यही दुआ के साथ आगे बढ़ता हूँ! वे निश्चय ही आलोचना में और ऊंचा मुकाम बनायेंगे! 
एक और‌‌ भी हैं न ऐसे हमारे मित्र डाॅ अजय शर्मा ! जो मूलत: तो एक डाॅक्टर हैं लेकिन साहित्य के कीड़े ने ऐसा काटा कि डाॅक्टर पीछे निशानी जैसा रह गया और वे उपन्यास लेखन में कदम दर कदम बढ़ते ही गये! शुरुआत हुई चेहरा और परछाईं से और फिर‌ आया बसरा की गलियां जो बहुचर्चित रहा । इसके बाद तो फिर दे दनादन 'नौ दिशाएं' , 'कागद कलम ना लिखणहार'  विभिन्न विश्वविद्यालयों में पांच कक्षाओं में शामिल ! 
इनके उपन्यासों पर अब तक 29एमफिल'.सात पीएचडी विभिन्न विश्वविद्यालयों से हो चुकी हैं! है न रिकॉर्ड? इनके अतिरिक्त .छह नाटक एक कहानी संग्रह पंजाबी में! इनके लेखन के आधार पर अब तक इन्हें पुरस्कार शिरोमणि पुरस्कार और केंद्रीय हिंदी निदेशालय से मिले अनेक सम्मान शामिल हैं । 
इतना याद दिला दूँ कि तरसेम गुजराल के उपन्यास ' जलता हुआ गुलाब' को वाणी प्रकाश की ओर से पुरस्कृत किया गया! जिसका चयन अपने समय के प्रसिद्ध आलोचक डाॅ नामवर सिंह ने किया था! इस तरह जालंधर में उपन्यास लेखन की परंपरा को मेरे मित्र बाखूबी आगे बढ़ा रहे हैं! डाॅ अजय शर्मा ने अमर उजाला, दैनिक जागरण और‌ दैनिक सबेरा में पत्रकारिता भी की! 
कभी प्रसिद्ध आलोचनक व पंजाब विश्विद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान ने कहा था कि यदि हिंदी साहित्य में से पंजाब के लेखकों का योगदान निकाल‌ दिया जाये तो यह आधा ही रह जायेगा! यानी आधा हिंदी साहित्य में लेखन पंजाब के लेखकों ने किया है ! हमारे मित्र धर्मपाल साहिल भी उपन्यास लेखन में पीछे नहीं! उन्हें भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय से उपन्यास पर सम्मान मिल चुका है! 
शायद आज के लिए इतना ही काफी! 
पुराने चावलों जैसी खुशबू जैसे दोस्तों की बातें आगे भी जारी रहेंगी। 

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