मेरी यादों में जालंधर- भाग सताइस

सेक्टर बाइस के बरामदे में कथा पर बात.... 

मेरी यादों में जालंधर- भाग सताइस

- कमलेश भारतीय
अभी जैसे पंजाब विश्वविद्यालय से बाहर आया ही नहीं ! कहीं छात्र नेता कुलजीत नागरा जैसी हालत तो नहीं हो गयी मेरी? वे अभी तक विश्वविद्यालय राजनीति से ज्यादा ऊपर नहीं उठे, हालांकि एक बार विधायक भी बन चुके लेकिन यह विश्विद्यालय है कि छूटता नहीं ! खैर, मैं आज याद कर रहा हूँ डाॅ सत्यपाल सहगल को, जो हिंदी विभाग में ऐसे जाने पहचाने गये, जैसे विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग और सहगल को एकसाथ ही याद किया जाये । मूल रूप से हरियाणा के सिरसा से लेकिन पढ़े लिखे पंजाब विश्वविद्यालय में ! सहगल को आप दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह मफलरमैन भी कह सकते हैं । सर्दियों में जो शख्स पंजाब विश्वविद्यालय में मफलर ओढ़े दिखे, समझिये वही सत्यपाल सहगल हैं ! दूसरी पहचान यह बनी कि जिसके निर्देशन में फिल्मी गीतकार इरशाद कामिल ने पीएचडी की, वही हैं डाॅ सत्यपाल सहगल ! इस सबसे ऊपर एक सशक्त हस्ताक्षर, कवि और जीवन भर की कमाई, दो काव्य संग्रह ! पुरस्कार वगैरह की चकाचौंध नहीं लुभाती, बस, लिखते जा रहे हैं, कोई छपास की भूख भी नहीं ! पहला काव्य संग्रह प्रेम कविताओं के नाम लेकिन आज तक कुंवारे! प्रेम इन्हें और ये प्रेम को खोजते रह गये !
दूसरा बड़ा नाम, जो याद आ रहा है, वह है हरजिंदर सिंह यानी लाल्टू भाई! आजकल चंडीगढ़ नहीं, हैदराबाद में हैं लेकिन जिन दिनो़ं ' दैनिक ट्रिब्यून' में रहा, उन दिनों लाल्टू और कुछ कुछ मैं भी मिलकर लाजपत भवन में हर सोमवार सायं पांच बजे काव्य पाठ का आयोजन रखते ! किसी को कोई चिट्ठी, न संदेश! बस, जैसे जैसे बात पहुंचती गयी, कवि आने लगे ! लाल्टू का यह प्रयोग नहीं भूलेगा और वे छोटी छोटी सी गोष्ठियाँ, जिनमें बड़े गहरे से कविता पर बातचीत होती और उनकी कविताएँ भी ! ऐसी ही छोटी छोटी काव्य गोष्ठियाँ हमारे मित्र रमेंद्र जाखू के सरकारी बंगले और डाॅ जगमोहन चोपड़ा के पंजाब विश्वविद्यालय में मिले आवास पर होती रहीं, जिनमें डाॅ चंद्र त्रिखा और मैं भी शामिल होते रहे ! डाॅ जगमोहन चोपड़ा व रमेश बतरा लेखन के साथ साथ संपादन में भी सक्रिय रहे। हालांकि डाॅ चोपड़ा मुख्य तौर पर कवि और‌ रमेश बतरा कथाकार रहे ! डाॅ चोपड़ा ने एक पत्रिका के कथा विशेषांक का संपादन समेत अनेक संपादन कार्य किये । आजकल पंचकूला में बहुत शांत से रहते हैं ! रमेश बतरा, राकेश वत्स , सुरेंद्र मनन, मैं और डाॅ अतुलवीर अरोड़ा तीन स्कूटरों पर देर शाम पिंजौर के यादवेन्द्रा गार्डन पहुंचते और इसके पास किसी ढाबे में सुरूर में होकर गाने भी गाते !  ये मस्ती भरे दिन और गाने भी याद आते हैं ! 
सुरेंद्र मनन का शराब के लिए कोड था कि रमेश ! मुझे एक फूल‌ लेना है ! हमारी खुली गोष्ठियाँ जमतीं सेक्टर बाइस के बरामदे में चाय की रेहड़ी के पास ! वहाँ हम अपनी कहानियों का पाठ करते क्योंकि रमेश का कम से कम मुझे तो यह आदेश था कि एक महीने में एक कहानी लिख कर नहीं लाये तो मुझे मुंह मत दिखाना ! यही आदेश न जाने कितनी कहानियां लिखवा गया, जो ज्यादातर मुंशी प्रेमचंद के बड़े बेटे श्रीपत राय  की पत्रिका ' कहानी' में आईं और‌ 'साहित्य निर्झर' और अज्ञेय के संपादन में नया प्रतीक' में भी आईं ! ये चंडीगढ़ के दिन हमारे ताप के ताये हुए दिन कहे जा सकते हैं ! 'साहित्य निर्झर' के संपादक तो हमारे परम मित्र शाम लाल  मेहंदीरत्ता 'प्रचंड' थे लेकिन उन्होंने रमेश को एक प्रकार से अपने प्रयोग करने के लिए जैसै गोद दे दी थी पत्रिका और आजकल शाम लाल मेहंदीरत्ता यानी प्रचंड पंचकूला में रहते हैं और उनका संग्रह भी आया ! उन‌ दिनों रमेश बतरा एक प्रकार से चंडीगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु कहा जा सकता है । फिर वह 'सारिका' का उप संपादक चुना गया, मुम्बई की राह पकड़ी और चंडीगढ़ की गतिविधियों को जैसे कुछ समय के लिए कोई ग्रहण लग गया ! हमने रमेश को विदाई दी थी, आकाशवाणी के विनोद तिवारी के आवास पर! 
डाॅ अतुलवीर अरोड़ा भी याद आ रहे हैं, जो बहुआयामी व्यक्तित्व हैं ! बहुत सशक्त अभिनेता रहे और 'अभिनेत' के नाटकों के नायक ! सशक कवि और हम दोनों का हर गोष्ठी के बाद एक ही मज़ाक होता कि कुल मिलाकर गोष्ठी सफल रही ! आजकल बहुत खामोश और अपने में खोये खोये से रहते हैं । बड़ी मुश्किल से छोटी सी इंटरव्यू के लिए मना पाया!
खैर! यादों की गलियों में कल फिर मिलते हैं!