मेरी यादों में जालंधर- भाग पच्चीस

पान, मदान और गोदान, मिली सीख जो आई काम... 

मेरी यादों में जालंधर- भाग पच्चीस

- कमलेश भारतीय 
कुछ लोगों से मिलना एक बार का मिलना नही होता । जीवन भर का साथ हो जाता है! ऐसा मिलना ही उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष व प्रसिद्ध कथाकार डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता से हुआ। हालांकि आज मैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी स्मरण कर रहा हूँ। बेशक मैंने उन्हें कभी नहीं देखा, न उनसे मेरी कभी कोई मुलाकात हुई  फिर भी उनके प्रिय शिष्य डाॅ परेश संग अनेक बातें हुईं वे भी तब जब वे हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने थे ‌। दैनिक ट्रिब्यून की ओर से इनका इंटरव्यू करने भेजा गया था ‌। डाॅ परेश ने अपने गुरुदेव को बहुत भावुक होकर याद किया था, जो मेरी पुस्तक ' यादों की धरोहर 'में शामिल है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नोबल पुरस्कार विजेता, 'गीतंजलि' के रचनाकार गुरुदेव के नाम से जाने जाते रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में उनके पास साहित्य का क, ख, ग सीखा और फिर वे पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। उनके कार्यकाल में पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की देश भर में पहचान बनी । इनके बाद यदि किसी और अध्यक्ष की बात की जाये तो उनका नाम है डाॅ इंद्रनाथ मदान ! जिन्होंने उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद पर अंग्रेज़ी में शोधकार्य किया। उन्हें इसीलिए पान, मदान और गोदान के साथ याद किया जाता है । इनसे मेरी पहली मुलाकात प्रिय मित्र फूलचंद मानव ने इनके आवास पर करवाई थी, जो बाद में काफी निकटता में बदल गयी । डाॅ इंद्रनाथ मदान आजीवन अविवाहित रहे और अंतिम समय अपनी एक छात्रा को गोद ले लिया था । इनकी कोठी संयोग से हमारे नवांशहर के विधायक दिलबाग सि़ह सैनी के पास थी जिसके चलते इनसे लगातार मिलता रहता था । 
 संयोग देखिए कि मुझे इनके जीवन के अंतिम पड़ाव पर तीन तीन इंटरव्यू करने का अवसर 'दैनिक ट्रिब्यून' के संपादक राधेश्याम शर्मा ने दिया जबकि मैं तब तक 'दैनिक ट्रिब्यून' के साथ पूरी तरह उप संपादक के रूप में जुड़ा नहीं था, मैं तो अपने छोटे से शहर से इसका पार्ट टाइम रिपोर्टर मात्र था और साथ में हिंदी प्राध्यापक भी था । ‌फिर भी अचानक यह अवसर मुझे मिला, वह भी देखा जाये तो डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता के आग्रह के चलते । मैं उनके पास किसी और काम से गया था जब चलने लगा तब उन्होंने पूछा कि अब कहाँ जाओगे ! मैंने बताया कि अपने विधायक के घर क्योंकि वे जानते थे कि डाॅ मदान का घर पास ही है तब उन्होंने आग्रह किया कि मैं डाॅ मदान से भी मिलता जाऊँ, वे बीमार हैं और पीजीआई से कुछ दिन पहले ही घर लौटे हैं। मैं उनके आग्रह पर डाॅ मदान से मिलने गया । वे बाहर ही छड़ी के सहारे थोड़ा टहल रहे थे और मेरे आने पर अंदर आकर तख्तपोश पर बैठ गये और अचानक जो बातों का सिलसिला चला, वह एक इंटरव्यू बन गया ! कितनी बेवाक टिप्पणियां रवींद्र कालिया और निर्मल वर्मा पर कीं ! मैं इसके बाद 'दैनिक ट्रिब्यून' ऑफिस गया । जब स़पादक राधेश्याम शर्मा को बताया कि डाॅ मदान से मिलकर आ रहा हूँ। इस पर उन्होंने पूछा कि कोई बात हुई उनसे तो मैंने कहा कि बातें हुईं और खूब हुईं। इस पर उन्होंने मुझे अपने कार्यालय में सामने पड़े सोफे पर बैठकर इंटरव्यू लिखने का आदेश दिया । यह मेरा पहला अवसर रहा कि किसी अखबार के संपादक के सामने बैठकर इंटरव्यू लिखना, जैसे कोई परीक्षा दे रहा था ! जैसे ही इंटरव्यू लिख लिया तो मैने उनको सौंप दिये वे पन्ने ! शर्मा जी ने कहा कि इसे रमेश नैयर को पढ़ने को देता हूँ, सहगल को नहीं, क्योंकि वे आपके मित्र हैं । तब तक आपको चाय पिलाता हूँ। कुछ समय बाद रमेश नैयर आ गये। ‌उनके हाथ में मेरे लिखे पन्ने थे। उन्होंने कहा कि शर्मा जी, यह तो नहीं कह सकता कि यह इंटरव्यू सर्वश्रेष्ठ है लेकिन यह कह सकता हूँ कि श्रेष्ठ इंटरव्यूज में इसे स्थान मिल सकता है ! इस तरह मैं परीक्षा में पास हुआ और दूसरा इंटरव्यू करवाने खुद राधेश्याम जी मेरे साथ डाॅ मदान के घर फोटोग्राफर को लेकर गये, तब डाॅ मदान व्यंग्य करने से न चूके और कहा कि कमलेश को इतनी दूर से बुला लेते हो, कोई पैसा वैसा भी देते हो कि नहीं ! खैर, आज सोचता हूँ तो लगता है कि उनकी यह बात ही शर्मा जी के मन में रह गयी और मैं सन्‌1990 में दैनिक ट्रिब्यून में उप संपादक के रूप में चुना गया ! 
आज डाॅ मदान की सीख पर बात खत्म करूँगा! सन् 1982 का ही वर्ष था कि मेरा पहला कथा संग्रह ' महक से ऊपर' प्रकाशित होकर आया था । एक प्रति बड़े चाव से डाॅ मदान को भेंट की। जब उनका अंतिम और तीसरा इंटरव्यू करने गया, तब डाॅ मदान ने मुझे मेरा ही कथा संग्रह दिखाते कहा कि तुम्हारे सारी कहानियां पढ़ डाली हैं लेकिन अब मेरे जाने का, समय निकट है और मैं इन पर कुछ लिख नही पाऊंगा ! ये कहानियाँ बहुत ही अच्छी हैं लेकिन एक बात मेरी पकड़ में आई है कि तुम वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में हो ! मेरी राय मानो इस चारदीवारी से बाहर निकल जाओ ! ये वामपंथी तुम्हें उतनी ही घास चरने देंगे, जितनी ये मुनासिब समझेंगे ! बस, यह अंतिम राय पाकर मैं सचमुच वह चारदीवारी फांद कर बाहर आ गया और मेरी कहानियाँ के तेवर अलग हो गये! यह बात भी याद है कि अब मुझसे मिलने कोई नही आता क्योंकि मैं वह बेरी नहीं, जिस पर अब बेर लगते हों! सच, कितना अकेलापन झेला होगा जीवन की आखिरी बेला में ! 
आज बस ! इतना ही। कल बात होगी डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता से मिली सीख की!