इन सर्दियों में : कुछ उदास करतीं प्रेम कविताएं 

इन कविताओं की पंक्तियों से गुजरते हुए ऐसे लगा जैसे ये कविताएं उदास प्रेम की कविताएं हैं जो पहाड़ों में पनपीं, फूली फलीं , फैलीं और पहाड़ों में ही सिमट कर कवि को उदास कर गयीं ।

इन सर्दियों में : कुछ उदास करतीं प्रेम कविताएं 

-कमलेश भारतीय 
रमेश पठानिया से मेरा परिचय नया ही है , ज्यादा पुराना नहीं पर हर रचनाकार एक दूसरे को जानता है , यह भी सच है । इसी विश्वास पर रमेश पठानिया ने अपना काव्यसंग्रह भेजा-इन सर्दियों में । मिल तो सितबर या उससे कुछ पहले गया था लेकिन लगभग डेढ़ महीने की बीमारी ने इसे दूर लाकर सर्दियों में पढ़ने का अवसर दिया यानी 'इन सर्दियों में' को सर्दियों में ही पढ़ा । सुबह सवेरे पिछले एक सप्ताह से लगा था इसे बांचने जैसे चाय की चुस्कियां लेने जैसा । मैंने रमेश को फोन पर कहा भी कि सर्दियों में इन कविताओं को पढ़ने का अहसास और मज़ा ही कुछ और है । खैर। 
इन कविताओं की पंक्तियों से गुजरते हुए ऐसे लगा जैसे ये कविताएं उदास प्रेम की कविताएं हैं जो पहाड़ों में पनपीं, फूली फलीं , फैलीं और पहाड़ों में ही सिमट कर कवि को उदास कर गयीं । वैसे सभी पहाड़ पर जाना पसंद करते हैं , मैं भी , लेकिन कहते हैं कि पहाड़ रहने के लिए नहीं, घूमने के लिए अच्छे लगते हैं । जो बर्फबारी सैलानियों के लिए एक खुशी का अहसास है , वही वहां के निवासियों के लिए शामत जैसा । इसीलिए रमेश लिखते हैं शीर्षक कविता में :
इस महानगर में 
सोच रहा हूं 
वही महिला उतने ही बोझ तले 
घास उठाकर कमान सी झुकी हुई 
जा रही होगी ?
कुछ किताबों में कविता में कवि ढूंढ रहा है : 
अब भी बाकी हों उस बुकमार्क पर 
या फिर कुछ किताबों में 
अंडरलाइन हों कुछ लाइनें 
,,,,,
किताबों की कभी सुन लिया करो
पास से गुजरो कभी तो ठहर जाओ 
दो घड़ी देख लो उन्हें 
जो राह तकती हैं तुम्हारी,,,
पास से गुजरो कभी तो  
ठहर जाना कुछ पल वहीं 
तुम्हारी राह तकती हैं
किताबें कई ,,,,
अरसे से किताबें नहीं खरीदीं अब
न उनमें बुकमार्क होंगे 
न होंठों की लाली 
न सूखे गुलाबों की महक 
फिर ऐसी किताबों का क्या करूंगा?
तन्हा सी इस ज़िंदगी में ।
कवि चाहता है कि जिंदगी के संदूक में 
रखी तुम्हारी यादों को मैं 
उलट पुलट कर देखता हूं 
महसूस करता हूं 
और चुप हो जाता हूं 
लम्बे अंतराल के लिए 
सर्दियों में अपने पुराने प्रेम को याद करता कवि लिखता है :
मखमली सुबह के दिन आ गये 
नरम नरम दोपहर के दिन आ गये 
सुनहरी शामों के दिन 
गर्म लिहाफों के दिन आ गये 
जो पीछे रह गये 
वो बिसार दे 
जो आज है उसे गुजार ले ,,,
बहुत सारी स्मृतियों को अपनी कविताओं में समेटने के बाद रमेश कहते हैं :
लगता है अब 
वो किसी और सदी की बात थी 
फिर गिरी शिमला में बर्फ 
सब पारदर्शी 
यादों की बुक्कल तो 
इस शहर में अब भी ओढ़े हूं ,,, 
कवि खुद से सवाल भी करता है : 
यादों को करीने से
तह कर रख पाना 
कहां संभव है ,, ?
हिरण शावकों की तरह 
कुलांचें भरती रहती हैं ,,,
अंतिम कविता तक प्रेम की स्मृतियों में ठहराव आता है और वे लिखते हैं :
अब जाकर नदी के पानी में ठहराव है 
क्षितिज शून्य नहीं लगता अब
नीला आसमान मुस्कुराने लगा है 
इस मौसम की तासीर
मेरे हक में बदलेंगी। 
इस कविता संग्रह में कवि ने 'प्राकृतिक आपदा' और 'सूखा' कवितांओं के माध्यम से ज़िंदगी की सच्चाई को भी छुआ है और दिखाने की कोशिश की । 
वैसे वे कहते हैं :
ऊन के गोले सी नरम 
तुम्हारी यादों को 
अंगीठी के किनारे बैठकर 
मैं महसूस करता हूं ,,,
तो यह रहा सफर रमेश पठानिया के काव्य संग्रह 'इन सर्दियों में' का । आशा करता हूं कि रमेश की काव्य यात्रा जारी होगी और फिर कभी या जल्द ही नयी सर्दियों के नये अहसास हमें पढ़ने को मिलेंगे । शुभकामनाएं ।
इसीलिए पहाड़ के मुकाबले महानगर के अनुभव पर कहते हैं : 
ऐसा लगता है महानगर सबका है 
लेकिन महानगर का अपना कोई नहीं है ,,,,