लघुकथा/चिंगारी/मनोज धीमान

लघुकथा/चिंगारी/मनोज धीमान
मनोज धीमान।

उसे इस बात पर गर्व था कि उसे अच्छी, सुशील, सुशिक्षित पत्नी मिली। बच्चे भी होनहार निकले। इतना सब कुछ होने के बाद भी उसे मन की शान्ति नहीं थी। हमेशा कोई कमी खलती रहती। मन की शान्ति के लिए उसने असीमित साहित्य पढ़ा। धार्मिक ग्रंथों का अध्यन किया। साधु संतों की शरण में भी गया। कथा, कीर्तन भी सुना। प्रवचन भी सुने। धार्मिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। और भी जो सम्भव था, उसने किया। मगर मन की शान्ति ना मिली। खालीपन ना गया। कई बार तो इतना परेशान हो जाता कि आत्महत्या करने के लिए सोचता। डॉक्टर को भी अपनी समस्या बताई। मनोचिकित्सक की सलाह भी ली। मगर बात नहीं बनी।कई बार मन में आया कि सब कुछ छोड़ कर किसी जंगल में निकल जाये। जंगल नहीं तो पहाड़ की किसी चोटी पर जा बैठे। मगर वह ऐसा कुछ नहीं कर पाया। अगर वह ना रहा तो उसकी पत्नी का क्या होगा। उसके बच्चों को कौन संभालेगा। यही सोच कर वह कोई कदम ना उठा पाया। एक दिन एक मित्र से मुलाक़ात हुई। उसका मित्र उसे बचपन से जानता था। मित्र ने उसे स्मरण कराया कि कभी वह बहुत अच्छी पेंटिंग्स बनाया करता था। स्कूल में सभी उसकी पेंटिंग्स की प्रशंशा किया करते थे। स्कूल में उसे बेहतरीन पेंटिंग्स बनाने के लिए कई बार पुरस्कृत भी किया गया था। उसके बाद उसका यह शौक कहीं पीछे रह गया। बहुत पीछे। इतना पीछे कि उसकी स्मृति में भी ना रहा था। जबकि एक समय था कि वह पेंटिंग्स के बलबूते पर ही अपना करियर बनाना चाहता था। पेंटिंग्स बनाने से उसे असीम प्रसन्नता व सुख का अहसास होता था। कैनवास पर जब वह रंग बिखेरता था तो उसे प्रकृति का अहसास होता था। उसे लगता था कि वह ईश्वर के बहुत करीब है। वह सोच की उन गहराईयों में पहुंच जाता जहाँ उम्र का कोई महत्व नहीं रहता। उसने अपने भीतर चिंगारी ढूंढ ली थी। उसे अपने मन की शांति और अकेलेपन का सहारा मिल गया था। उसने अपने मित्र को कहा - धन्यवाद मित्र। उसका मित्र प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देख रहा था।