लघुकथा/भिखारी

लघुकथा/भिखारी
मनोज धीमान।

नितिन दफ़्तर के बाहर अपनी बाइक खड़ी कर रहा था कि एक दुबला पतला व्यक्ति उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसके एक हाथ में कटोरा था और दूसरे हाथ में लाठी। कमजोरी की वजह से वह बड़ी मुश्किल से खड़ा हो पा रहा था। हाथों के नाखून बड़े हुए  थे। सिर के बाल आपसे में उलझे पड़े थे। दाढ़ी भी बेतरतीबी से बढ़ी हुई थी। शरीर से गंदी महक उठ रही थी। शायद वह पिछले लम्बे समय से नहाया भी नहीं था। उसने देखा जिस हाथ में कटोरा पकड़ रखा था, वह कांप रहा था। उसने नितिन की ओर उम्मीदभरी नज़र से देखते हुए कहा- "बाबू भगवन आपका भला करे। इस गरीब को कुछ पैसे दे दो। कुछ खा लूंगा दो दिन से कुछ नहीं खाया है। भूख से पेट में आग जल रही है।" नितिन ने भिखारी को घृणा से देखा और जोर से चिल्लाया-"चल हट। भाग यहाँ से। सुबह सुबह आ जाते हैं भिखारी बन कर।" इतना कह कर वह सीधा ऑफिस में घुस गया। अपने टेबल पर सामान रख कर वह सीधा बॉस के कमरे में चला गया और "गुड मॉर्निंग" कहा। बॉस के पास उस समय कोई बैठा हुआ था। नितिन को देखते ही बॉस ने पुछा-बताओ कैसे आना हुआ। नितिन थोड़ा हिचकिचाने लगा और बॉस के पास बैठे व्यक्ति के ओर देखने लगा। नितिन के बॉस ने स्थिति को भांप लिया और कहा - "अरे ये मेरे मित्र हैं। तुम खुल कर कहो क्या कहना चाहते हो।" तब नितिन ने कहा," सर, आपसे एक विनती है। महंगाई बहुत हो गई है जिस की वजह से खर्चे बहुत बढ़ गए हैं। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी पगार बढ़ा दें।" बॉस ने नितिन को अजीब सी नज़रों से देखा और फिर कहा," कोई बात नहीं। सोचते हैं। अब तुम जाकर अपना काम करो।" इतना सुन कर नितिन बॉस के कमरे से बाहर आ गया। अभी उसने दरवाजा बंद ही किया था कि उसे बॉस की आवाज़ सुनायी दी, "पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं सुबह सुबह भिखारी बन कर।"  
-मनोज धीमान।