अनिल पाण्डेय की कलम से 

अनिल पाण्डेय की कलम से 

आस्था तुम लेते हो 
लेगा अनास्था कौन?
अंधायुग में विदुर के ये प्रश्न 
आशंका जताते हैं 

आस्था-अनास्था 
सब कहने भर के शब्द हैं 
अँधेरी गुफा में छोड़ 
महज ढांढस बंधाते हैं 

न जाने क्यों मन 
इधर सोच रहा है बार-बार 
जीतने की प्रत्याशा में 
हर बार मिलती है हमें हार 

हम हैं कि 
दिखाते हैं आस्था 
और बाद उसके खुद ही  
अनास्था में मरे जाते हैं

2.

सुनो! कुछ नहीं है इस युग में 
श्रद्धा और विश्वास जैसा 
किसी का जुड़ना और टूटना भी 
महज प्रारब्ध है 
इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं 

उठो और निश्चिन्त हो जाओ 
जो करना चाहते हो 
करो खुलकर
यह न कहो कि है कोई 
और देख रहा है ध्यान लगाकर  

प्यार, और घृणा जो भी मिलेगा  
महज तुम्हारे किये पर 
काँटें उग रहे हैं उर्वर भूमि में, कहीं 
बंजर में भी फूल खिलेगा 
चलो एक कदम तो बस चलते जाओ