ग़ज़ल / अश्विनी जेतली

ग़ज़ल / अश्विनी जेतली
अश्विनी जेतली।

ज़ुल्फ़ लहरा के उसके शाने पे आ गयी ऐसे
कि घटा चांद की पेशानी पे छा गयी जैसे

दिल में ग़म भरे थे, प्यार के लिए जगह न थी
चुपके से तेरी उल्फ़त, समा दिल में गयी कैसे? 

वो था दरिया जो सूख के सहरा हुआ है
बहते पानी को लपक कर रेत खा गयी जैसे

खुशी की मौत का मातम मनाने आया ग़म
फ़िक्र की लाश हो मक़तल में आ गयी जैसे

दर्द-ए-दिल को सुकूं का एक पल ना मिला
सुबह-ओ-शाम को तन्हाई थी खा गयी जैसे

जलाने को घरौंदा बिजलियाँ ही आयीं थीं 
मगर दिल ये समझा शफ़क़ है छा गयी जैसे