संस्मरण/तुम्हें याद हो कि न याद हो 

संस्मरण/तुम्हें याद हो कि न याद हो 
कमलेश भारतीय।

सन् 1978 की यादों में निकल रहा हूं । नवांशहर पंजाब में हम हिंदी के दो ही रचनाकार थे । मैं और काॅलेज में मेरा जूनियर रहा मुकेश सेठी । कहीं भी जाते तो इकट्ठे । डाॅ वीरेंद्र मेंहदीरत्ता से चंडीगढ़ में एकसाथ मिले पहली बार और उस जमाने में बहुचर्चित कथाकार स्वदेश दीपक से अम्बाला छावनी मिलने गये तो इकट्ठे । हमने उनका प्रथम कथा संग्रह अश्वारोही एक साथ डाक से मंगवाया था 
ऐसी दीवानगी थी हम दोनों में कथा के प्रति । 
मैंने मुंशी प्रेमचंद के बेटे श्रीपतराय की पत्रिका कहानी में कहानी भेजी तो मुकेश सेठी ने भी । कमाल यह कि दोनों की कहानियां एक ही अंक में आ गयीं । फिर तो सन् 78 और 79 के बीच मेरी नौ कहानियां श्रीपत राय  के संपादन में कहानी में आईं । दिल्ली रमेश बतरा के पास जाना होता रहता था । टाइम्स ऑफ इंडिया की बिल्डिंग के पास ही श्रीपत का सरस्वती प्रकाशन भी था । एक दिन वहां चला गया ।
बिहार के कथाकार रामानंद तब वहां ऑफिस और पत्रिका संभालते और श्रीपत जी हौज़ खास घर रहते । रामानंद मेरे परिचित हो चुके थे । उन्होंने कहा कि श्रीपत जी से मिलोगे ? मैंने हामी भर दी । वे मुझे डीटीसी की बस में ले चले । शाम का समय था । हौज़ खास उनके घर पहुंचे । तीन मंजिला घर था । सबसे ऊपर की मंजिल पर एक बड़े से हाॅलनुमा कमरे में नीम अंधेरे में श्रीपत बैठे थे । दीवारों पर उनकी बनाई पेंटिंग्ज लगी हुई थीं । कहानी के कवर पर उन्हीं की पेंटिंग्ज रहती थीं । रामानंद ने मेरा परिचय कराया तो बहुत जोश से स्वागत् किया । मेज़ पर बीयर की बोतल पड़ी थी । शायद घूंट घूंट लेते होंगे । 
बातचीत शुरू हुई । मैंने हार्दिक आभार जताया कि आपने एक वर्ष के भीतर मेरी नौ कहानियां प्रकाशित कीं । वे पलट कर बोले कि तुमने बारह कहानियां क्यों नहीं भेजीं ? मैं हर माह तुम्हारी कहानी देने को तैयार हूं । 
-ऐसा क्यों?
-आपको पता है कि यह मेरा नये लेखक को स्थापित और चर्चित करने का तरीका है । जानते हो न कि आज जो कहानी में बड़े लेखक हैं वे कहानी के माध्यम से ही आगे बढ़े हैं । 
-आपने एक शोध पढ़ा होगा जिसमें यह साबित किया गया कि मुंशी प्रेमचंद कोई गरीब नहीं थे । उनको कोई आर्थिक संकट नहीं था । अंतिम समय उनकी पासबुक में अठारह सौ रुपये थे । क्या आप उनके पुत्र होने के नाते कुछ कहेंगे ?
-देखिए । वे मेरे पिता जरूर थे लेकिन मैं कुछ कहूंगा तो एक बेटे का विरोध मात्र माना जायेगा । इसलिए मैं कुछ नहीं कहूंगा । इसकी बजाय हिन्दी समाज इसका जवाब दे । तब यह सही होगा । 
-एक नये कथाकार की आपने नौ कहानियां प्रकाशित कीं । पर पारिश्रमिक का स्वाद तो चखने नहीं दिया । 
-इसका भी उपाय कर देता हूं । कल आप रामानंद के साथ सरस्वती प्रेस यानी ऑफिस जाना और जो भी पुस्तकें अच्छी लगें वह ले जाना । कोई पैसा नहीं लिया जायेगा । शायद यह पारिश्रमिक से ज्यादा बेहतर हो । 
मैं नतमस्तक । 
फिर उन्होंने रामानंद को निर्देश दिया कि अतिथि गृह में इनके रहने का प्रबंध करो । आज ये हमारे अतिथि होंगे । 
आज भी जब वह एकमात्र मुलाकात याद करता हूं तो पुलकित हो उठता हूं ...कि कैसा दिन था वह ।
-कमलेश भारतीय