दिलीप कुमार पाण्डेय के काव्य-संग्रह “मैं समय हूं” की कविताओं में जीवन, समय और समाज की सजीव झलक

दिलीप कुमार पाण्डेय
यह संयोग है कि मैंने अपना नया उपन्यास खत्म किया और दिलीप कुमार पाण्डेय के काव्य-संग्रह "मैं समय हूं'" ने दस्तक दी। किताब देखते हुए पढ़ने की इच्छा हुई। लगभग एक साल के बाद किसी किताब को पढ़ने के लिए मन बनाया था। अभी उपन्यास के हैंगओवर से बाहर नहीं निकला था। लेकिन कविताएं पढ़ते हुए उनमें ऐसा रमा कि सारा हैंग ओवर खत्म हो गया। संग्रह की पहली ही कविता "मुंह बंद रखो" में दुनिया की नब्ज टटोलने में कामयाब रही है। मतलबी दुनिया पर प्रहार करती हुई कविता सोचने के लिए मजबूर कर देती है। इसमें एक तीखा व्यंग्य भी छुपा हुआ है, जो किसी एक वर्ग विशेष की नहीं, बल्कि साहित्यकार से लेकर सांसद तक को अपनी चपेट में लेते हुए आगे बढ़ती है। असल में इस कविता में कवि ने बताने की चेष्टा की है कि हर कोई चाहता है कि हर व्यक्ति उसका पिछलग्गू बन कर उसका स्तुति गान करे और अपने अस्तित्व की तलाश खत्म कर दे। लोग ऐसे लोगों की वाहवाही करके दूसरे की महफिल को आबाद करते रहें। हर कोई चाहता है कि लोग उसी का यशोगान करें। लेकिन लेखक को सब मंजूर नहीं है। वह समाज को आंखें मूंद कर नहीं बल्कि खुली आंखों से देख कर आगे बढ़ना चाहता है। और यही जिद है उसकी। उनकी कविता की कुछ पंक्तियों की बानगी देखिए
उनकी इच्छा थी
मैं हमेशा दरकिनार रहूं
उनके निजी कार्यों में
सिर्फ महफिल सजाऊं
कार्यक्रम की शोभा बढ़ाऊं
नारे लगाऊं।
लेखक की कलम यहीं नहीं रुकती। इसी भाव से मिली-जुली कविता "बहरे रास्ते" भी कवि के मन का गुबार किसी न किसी भाव में छलक उठता है और पाठक इसके साथ बहने लगता है।
कुछ भी पता नहीं
अज्ञात
बिना सिर-पैर
कटे अंग वाला व्यक्ति कौन
बहाव में बह रहा है
कोई आकार-प्रकार नहीं
इधऱ-उधऱ भटकता हुआ कवि मन प्रेम की तरफ लौटना चाहता है। उसे भटकन के बाद पूरी कायनात प्रेम के रंग में रंगी हुई नजर आती है। उस कविता का नाम है, "मैं समय हूं", काव्य-संग्रह का शीर्षक भी यही है। इस कविता में दुनिया को मापने की तमाम कोशिशें की गई हैं। लेकिन यह इत्तेफाक है कि उसमें भी कवि मन उदास है, उसे समाज खंडित हुआ दिखाई देता है। इस कविता में समय के साथ छोटे-छोटे सपने भी चकनाचूर हो जाते हैं। यानी घायल पक्षी की तरह फड़फड़ाते हैं। इस कविता में हर इंसान सबके नजदीक जाने की नाहक कोशिश कर रहा है। उसी चक्र में वह निज से टूट रहा है। अगर कहूं कि मैं से मैं माइनस हो रहा है तो गलत न होगा। वह सारी दुनिया को पहचानने लगा है, लेकिन खुद की पहचान से दूर है। यही है मायावी दुनिया का सच, जिसे लेखक ने अपने शब्दों में बयां किया है। देखिए कविता की कुछ पंक्तियां
जीवन की आनलाइन
एक्टिंग क्लास में
मुखौटा ओढ़े हुए
अपनी ऊंचाई बढ़ाने में
बिना परवाह किए
रौंद डाला किसी का मकाम
इस कविता में यह भी बताया गया है कि हर कोई चल रहा है भाग रहा है और भागता हुआ हांफ भी रहा है। वह ऊंचा और ऊंचा उठना चाहता है। हालांकि हर कोई जानता है आकाश में कभी घर नहीं बनता। इसके बावजूद वह आकाश में रेत के महल बनाता चला जाता है। लेकिन समय का पहिया घूम रहा है। उसी के चलते आखिरकार अपने ही मैं से हार कर थका और ठगा हुआ महसूस करता है, क्योंकि समय का चाबुक बहुत कुछ सिखा देता है। इस कविता में समय कैसे करवट बदलता है, उसे भी बखूबी बताया गया है। कविता में विस्थापन भी जोर-शोर से दस्तक देता है। वह विस्थापन शारीरिक भी है और मानसिक भी। इसी चक्कर में विकास और विनाश एक सिक्के के दो पहलू बताए गए हैं। यह रहस्य कवि अपनी कविता "परतें' में खोलता हुआ लिखता है
बहुत कोशिशों के बावजूद
बाबा का हाथ नहीं छोड़ता था।
डांट-फटकार के बाद भी
लौट आता था अपनी तह में
जो बार-बार बंद होने पर खुलती थीं।
इस कविता से कवि मैं में मैं ढूंढने के लिए प्रयासरत है। कविता विस्तार लेती है और निज से टूटकर व्यापकता की ओर बढ़ती है। उसे बढ़ाने के लिए कवि ने बड़े सुंदर ढंग से बिंब रूप में "ब्रह्मराक्षस' का सहारा लिया है। इस कविता में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। मैं समय हूं का प्रतिबिंब ही प्रतीत होता है ब्रह्मराक्षस कविता में। इसमें बताया गया है कि मिट्टी से मिट्टी होता हुआ मनुष्य गगनचुंबी इमारतों की कल्पना करने लगा है। जहां थकान नाम की कोई चीज नहीं है। लेकिन कहते हैं तूफान से पहले की खामोशी कई बार बड़ी घातक होती है। उसी को समेटे हुए यह कविता आगे बढ़ती है। जिंदगी में भूचाल आता है। मैं से मैं का माइनस हो जाना इस कविता की बहुत बड़ी उपलब्धि है। जब मैं से मैं माइनस हो जाता है तो शेष स्व से स्व तक की यात्रा शुरू हो जाती है। वह यात्रा इस कविता में अपना आकार लेती हुई दिखाई देती है। ब्रह्मराक्षस एक बिंब के रूप में इस कदर घुल मिल गया है, जिसमें सबको अपना चेहरा दिखाई पड़ सकता है। ब्रह्मराक्षस एक ऐसी अवस्था का नाम है जिसमें इंसान न तो जिंदा है न मरा हूआ। चेतन और अवचेतन अवस्था में झूलता हुआ व्यक्ति अपने कर्मों का हिसाब लगाता हुआ ब्रह्मराक्षस की विदाई के गीत गाता हुआ कहता है
मैं अब ब्रह्मराक्षस बन कर
जल रहा था।
मेरी चेतना सुषुप्ति जागृति
किसी कोने में दस्तक दे
धीरे-धीरे प्रज्वलित हो रही है।
इतना अच्छा काव्य-संग्रह पाठकों को देने के लिए मैं दिलीप जी को अपनी शुभकामनाएं देता हूं और उम्मीद करता हूं कि आने वाले समय में इससे भी बेहतर कविताओं का संग्रह अपने पाठकों को देते रहेंगे।

डॉ. अजय शर्मा, जालंधऱ।
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