ललित बेरी की एक काव्य रचना
आज मेरी कलम
मुझ से बगावत कर बैठी
बोली...
थक गई हूं मैं
तेरा दर्द लिखते लिखते
कुछ तो प्रेम बरसा अब
माना कठपुतली हूं तेरे हाथ की
पर मेरा भी तो कुछ हक है
समझाना मेरा फर्ज है
ना बहा मुझे यूं आंसुओं में
कुछ तो वजह बना मुस्कुराने की
कर प्रेम की कुछ बातें
कुछ तो दिल को आराम दे
चल आसमान में उड़ चले
चांदनी रात में झूमे
नाचे मस्त हवाओं में
उतार फेंक बदनसीबी का कफन
मुझे भी तो सैर करवा दे
इश्क की बस्तियों में
थाम ले तू प्रेम का दामन
थक गई हूं मैं
अब तो प्रेम बरसा दे
(ललित बेरी)
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