जब कोई पाठक लेखक की आवाज बनता है, तब बात दूर तक जाती है

जब हम रिश्तों की बात करते हैं, तब पाते हैं, जिंदगी में कई लोगों से रिश्ते बनते हैं, वक्त के साथ छूट भी जाते हैं। ना भी छूटें, अक्सर उनकी तपिश कम हो जाती है। जब जरूरत पड़े, यदा-कदा उन्हें याद कर लिया जाता है। लेकिन जब किसी पाठक का रिश्ता किताब के साथ बनता है, वह कभी खत्म नहीं होता। मैंने भी अपनी जिंदगी में यही महसूस किया है, जो किताबें मुझे अच्छी लगती हैं, वे आज भी उतनी ही प्रिय हैं, जितनी पहली बार पढ़ने के समय थीं। अब इस बात को वर्षों बीत गए लेकिन किताब के माध्यम से बना हुआ रिश्ता धूमिल नहीं हुआ। मैंने कभी प्रेम चंद को नहीं देखा। मैंने कभी शरत चंद्र को नहीं देखा। मैंने कभी अल्बेयर कामू या फिर हेमगेव को नहीं देखा। गोर्की टालस्टाय या फिर चेखव को नहीं देखा। बहुत सारे नाम है जिन्हें में उंगलियों पर गिन सकता हूं। मेरा मकसद नाम गिनना नहीं है। यह एक उदाहरण के तौर पर है। मैं इनसे कभी नहीं मिला लेकिन मेरे अंदर पालथी मार कर बैठे हुए हैं। मुझे अच्छी तरह से उनका चेहरा भी नहीं पता कैसा रहा होगा। लेकिन जो चेहरा कभी उनकी कृतियों में देखा, उनका नाम लेते ही मेरी आंखों के सामने तैरने लगता है और मैं उनकी रचनाओं में खो जाता हूं। अगर मैं कहूं कि पाठक और लेखक का रिश्ता ऐसा होता है, जो एक बार बन जाए वह कभी नहीं छूटता। और वही रिश्ता आपको बहुत दूर तक ले जाने की क्षमता रखता है। एक बात पक्की है, जब तक आपकी कृति में दम न हो पाठक और लेखक का रिश्ता नहीं बन पाता, भले ही उस पाठक ने आपकी किताब कभी पढ़ी हो। मेरी जिंदगी में बहुत से पाठक आए। उनमें से कुछ पाठक शोधार्थी थे कुछ पाठक वे थे जिन पाटठकों ने मेरे उपन्यासों में यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में लगे होने के कारण मेरे उपन्यास पढ़े। लगभग उपन्यासों पर 29 एम.फिल हुईं और 9 पीएच. डी। सभी पाठक थे। सभी ने बहुत गहन से पुस्तकों पढ़ कर शोध किया होगा। वाइवा भी दिया होगा। लेकिन एक पाठक जिससे मैं बिल्कुल अंजान था। उसने न तो मेरे उपन्यासों पर शोध किया और न ही किसी पाठ्यक्रम के कोर्स में पढ़ा। वह पाठक मेरे उपन्यासों को पढ़ कर प्रभावित हुआ, जिसका मुझे बिल्कुल नहीं पता था। लेखक को नहीं पता होता , कौन उसकी किताब पढ़ रहा है कौन नहीं। तब मोबाइल फोन का जमानाा भी इतना एडवांस नहीं हुआ था। संपर्क का माध्यम केवल चिट्ठी होती थी। हर कोई इस मामले में इतनी फुर्तीला नहीं होता पढ़े और उसके बारे में चिट्ठी लिख दे। इसलिए बहुत सारे पाठक जिंदगी में ऐसे आते हैं आपको पता ही नहीं होता, कि उसने किताब पढ़ी है। मुझे कई सालों के बाद कोई मिलता है तो उपन्यासों का जिक्र करता है तो पता चलता है। बहुत सारे प्रसंग मेरे साथ जुड़े हुए हैं। एक प्रसंग ऐसा है जिसे मैं आप लोगों के साथ साझा करना चाहता हूं।
एक दिन मैं लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी में डॉक्टर विनोद और डॉक्टर अनिल पांडे के साथ कैंटीन के बाहर चाय पी रहा था अचानक मेरे मोबाइल फोन पर एक नंबर फ्लैश होने लगा। वह नंबर मेरे लिए अननोन था।
मैंने जैसे ही हैलो कहा, आवाज आई, 'आप डॉ. अजय शर्मा बोल रहे हैं।’
आवाज किसी लड़की की थी। मैंन तुरंत कहा, 'जी बोल रहा हूं, कहिए।’
'मैं पंजाब, सेंट्रल यूनिवर्सिटी बठिंडा से बात कर रही हूं। मुझे आप से एक फेवर चाहिए।’
मैंने तुरंत कहा, 'कैसी फेवर।’
पलट कर जवाब मिला, 'असल में, मैं यूनिवर्सिटी में एम.ए की स्टूडेंट हूं। मुझे आपके उपन्यास 'शहर पर लगी आंखें’ पर थीसिस लिखने के लिए मिला है।’
मैंने तुरंत कहा, 'मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता, क्योंकि मेरे पास उपन्यास की एक ही प्रति है। और मैं उस प्रति को खोना नहीं चाहता। स्टूडेंट्स वादे जितने मर्जी कर लें लेकिन किताब काम हो जाने के बाद किताब वापस नहीं भेजते।’
उस लड़की ने तुरंत जवाब दिया, 'उपन्यास मेरे पास है। अगर कोई उस पर, किसी का लिखा हुआ पेपर मिल जाए, मुझे उपन्यास को समझने में आसानी हो जाएगी।’
मैं उसकी बात सुन कर हैरान हो गया।
मैंने तुरंत पूछा, 'उपन्यास आपको कहां से मिला?’
उसने तुरंत कहा, 'उपन्यास हमारी लाइब्रेरी में पड़ा है।’
'आपकी लाइब्रेरी में...।’
मैं हैरान था। मैंने यह कह कर वार्तालाप को विराम दिया और कह दिया, 'मैं कहीं बाहर हूं। शाम को फोन करूंगा।’
दिन भर व्यस्त रहा। रात के नौ बजने को थे। जब मुझे ध्यान आया, मैंने सोचा क्या इस समय फोन करना उचित रहेगा?
मुझ से रहा नहीं गया और मैंने फोन लगा दिया।
मैंने कहा, 'अब बताओ, क्या मामला है? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। रही बात किसी के पेपर की, मेरे पास, इस उपन्यास के बारे में बहुत सारे लेखकों और आलोचकों के बहुत सारे पेपर हैं। उपन्यास छपा 2006 में छपा था। हिंदुस्तान के विभिन्न आलोचकों और पाठकों की बहुत प्रतिक्रियाएं आई थीं। उस समय एक आलोचक ने, एक किताब एडिट की थी, जिसका नाम था शहर पर लगी आंखें में ग्लोबलाइजेशन।’
मेरी बात सुन कर लड़की खुश हो गई और कहने लगी, 'सर आप मुझे किसी तरह से वह किताब दे दें, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।’
मैंने पूछा, 'आपका टॉपिक क्या है?’
संक्षिप्त सा उत्तर आया, 'ग्लोबलाइजेशन।’
मैंने भी तुरंत कहा, 'मैं आपको किताब भेज दूंगा। आप अपना पता भेज दें।’
लड़की मेरी बात सुन कर खुश हो गई और बोली, सर आप मुझे किताब भेज दें, मैं उसकी पेमेंट कर दूंगी।’
मैंने तुरंत कहा, 'मैं किताब भेज दूंगा। तुम पेमेंट की चिंता मत करो।’
इतनी बात कह कर मैंने सवाल दाग दिया। 'आपका गाइड कौन है?’
उसने तुरंत कहा, 'डॉ राजेन्द्र सेन।’
डॉक्टर राजेन्द्र सेन सुन कर मैं दंग रह गया। मैंने यह नाम पहले कभी नहीं सुना था।
मैंने फिर कहा, 'मैं उन्हें नहीं जानता। क्या तुम मुझे उनका नंबर दे सकती हो?’
उसने तुरंत कहा, 'क्यों नहीं, मैं आपको मैसेज कर देती हूं।’
मैंने कहा, अपना पता और नंबर याद से मैसेज कर देना, ताकि मैं उस पते पर किताब भेज सकूं।’
फोन बंद हो गया, लेकिन मेरे अंदर डॉक्टर राजेन्द्र सेन फंस गया। मैं न तो कभी मिला, न ही कभी किसी से उनका नाम सुना था। मेरे उपन्यास पर थीसिस कैसे दिया होगा? कई तरह के सवाल मेरे मन में आने लगे।
इस बीच मैंने खाना खाया, लेकिन खाना खाते समय भी राजेन्द्र सेन के बारे में सोचता रहा। आखिर कौन है राजेन्द्र सेन?
खाना खाकर मैंने व्हाट्सएप चेक किया, पाया नंबर और पता दोनों आ चुके थे।
मैंने नंबर सेव किया और मिला दिया।
हैलो करते ही मैंने अपना परिचय देते हुए कहा, 'मैं डॉक्टर अजय शर्मा, जालंधर से बोल रहा हूं।’
मेरी बात सुनते ही प्रोफेसर साहब ने कहा, 'कहिए डॉक्टर साहब क्या हाल है?
उनकी बात सुन कर मैं और परेशान हो गया। मुझे उम्मीद थी, वह कहेंगे कौन अजय शर्मा? लेकिन यहां गंगा उल्टी बहती थी, उन्होंने सीधा हाल-चाल पूछ लिया था, जैसे मुझे बहुत अच्छी तरह से जानते हों।
मैं तुरंत मुद्दे पर आ गया और कहा, 'आपकी यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट का फोन आया था। वह कह रही थी, आपने उपन्यास 'शहर पर लगी आंखें’ पर कोई लघु शोध प्रबंध करने के लिए दिया है।’
उन्होंने सहज भाव से कहा, 'हां दिया है। अगर उसका फोन आए और कुछ पूछना चाहे, उसे उपन्यास के बारे में कुछ बता देना। बच्चे हैं, धीरे-धीरे सीख जाएंगे।’
मैंने संकोच वश पूछा, 'सर आप मुझे कैसे जानते हैं? आपको मेरा कांटेक्ट नंबर कहां से मिला?’
उन्होंने पलट कर कहा, 'मैं आपको नहीं जानता। लेकिन आपकी रचनाओं के माध्यम से आपसे परिचित हूं।’
मैं उनकी बात सुन कर हैरान हो गया और कहा, 'जहां तक मुझे याद है, हम लोग कभी मिले भी नहीं है। आप कह रहे हैं रचनाओं के माध्यम से जानता हूं।’
मेरी बात सुन कर उन्होंने कहा, क्या किसी रचनाकार की रचना पढ़ने के लिए उससे मिलना जरूरी है?’
उनकी बात सुन कर, मैं शर्मिंदा हुआ। मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया।
उन्होंने बात को जारी रखते हुए कहा, 'वैसे हम लोग एक बार मिले हैं। उसके लिए कुछ साल पीछे जाना पड़ेगा। एक बार पंजाबी विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम में आप आए थे। उन दिनों मैं स्टूडेंट था। आपसे हल्की-सी मुलाकात हुई थी। डॉ. सुखविंदर कौर बाठ ने परिचय करवाया था। काफी लोग थे, इसलिए आपको याद नहीं होगा।’
मैं उनकी बात सुन कर हैरान-परेशान हो गया।
उसी परेशानी में मैंने कहा, 'सच में, मुझे याद नहीं है।’
मेरी परेशानी वह फोन पर ही समझ गए थे और बोले, 'उन दिनों में पीएच.डी कर रहा था। मेरे कुछ दोस्त आपके दो उपन्यास शहर पर लगी आंखें और बसरा की गलियां पर एम.फिल कर रहे थे। उन दिनों, मैंने दोनों उपन्यास पढ़े थे। सच पूछिए, दोनों उपन्यास मेरे दिमाग में आज भी दस्तक देते रहते हैं। दोनों उपन्यास मेरी जिदंगी के बेहतर उपन्यासों में से हैं। जब मेरी पोस्टिंग पंजाब सेंट्रल यूनिवर्सिटी, बठिंडा में हुई, मैंने सबसे पहले ऑनलाई सर्च करके बाकी लेखकों के साथ आपके जितने भी उपन्यास मिले अपनी लाइब्रेरी में रखवा दिए। इस लड़की को डेजर्टेशन देना था, आपका नाम दिमाग में आना स्वाभविक था।
मैंने इसे कहा, 'डॉक्टर अजय शर्मा के जितने भी उपन्यास पड़े हैं, सभी पढ़ लो और जो तुम्हें अच्छा लगे उसे चुन लेना। लड़की ने सारे उपन्यास पढ़े और आकर बोली, 'सर, मन तो कर रहा है, सारे उपन्यासों पर कर लूं। लेकिन 'शहर पर लगी आंखें’ पर करना चाहती हूं। उसमें पंजाब के मुद्दों को बहुत अच्छी तरह से उठाया गया है। कोई भी उपन्यास किसी से कम नहीं है।’
भाग दो
बीच-बीच में लड़की किसी काम के लिए फोन कर लेती। उसका थीसिस खत्म हो गया था।
एक लड़की ने मुझे फोन पर कहा, 'सर मेरी एम.ए खत्म हो गई है और मैंने थीसिस जमा कर दिया। एक कापी आपके लिए थी। मैं आपको पोस्ट करना चाहती थी, सर ने कहा है, मैं जब भी जालंधर गया, दे आउंगा।’
कुछ दिन बाद डाक्टर राजेन्द्र सेन जी का फोन आया और उन्होंने कहा, 'थीसिस मेरे पास है, मैं कई बार, कई किसी न किसी यूनिवर्सिटी में आता रहता हूं। थीसिस मैं खुद देकर जाऊंगा। इसी बहाने मुलाकात भी हो जाएगी।’
मैंने कहा, 'ठीक है सर, मैं आपका इंतजार करूंगा।’
रक्षा बंधन का दिन था। मूसलाधार बरसात हो रही थी। अचानक मेरे फोन की घंटी बजी। मैंने देखा डाक्टर राजेन्द्र सेन का नाम स्क्रीन पर फ्लैश हो रहा था।
हैलो होते ही उन्होंने कहा, 'मैं कपूरथला रोड पर पहुंच गया हूं। अब आगे का रास्ता मुझे समझा दो।’
मैंने उन्हें रास्ता समझा दिया। आजकल जीपीएस का सिस्टम है, जिसके चलते सीधा घर के सामने आकर उनकी गाड़ी रुकी। उस दिन खुल कर बातें हुईं।
उन्होंने कहा, 'जब कोई लेखक कृति से जाना जाता है, वह कभी नहीं मरता। मुझे लगता है, उपन्यास 'बसरा की गलियां’ और 'शहर पर लगी आंखें’ आपकी पहचान के साथ जुड़ गए हैं। भारत में आधुनिक युद्ध की विभीषिका पर लिखा गया, किसी भी लेखक के द्वारा पहला उपन्यास है। 2004 में प्रकाशित हो गया। जाहिर सी बात है, 2003 में लिख लिया होगा। तब यह युद्ध खत्म भी नहीं हुआ था। वैसे भी युद्ध पर उपन्यास लिखना और कहानी को आगे ले जाना बहुत मुश्किल होता है। आप के उपन्यासों में सबसे बड़ी खासियत यह है कि आप कथा को आगे ले जाने के लिए उपन्यास को छोटी-छोटी उप-कथाओं के साथ आगे बढ़ाते हैं। यही आपकी खासियत है। इससे पाठक बोर नहीं होता, बल्कि उसकी उत्सुकता बढ़ती जाती है। छोटी-छोटी उप-कथाएं आपकी कहानी को गति भी देती हैं और रोचकता भी प्रदान करती हैं। सच बता रहा हूं, आज भी दोनों उपन्यासों की कथा मेरे दिमाग में फंसी हुई है। मेरे हाथ में हो, मैं इस कृति को बड़े से बड़ा पुरस्कार दे दूं।’
उस दिन बहुत सारे मुद्दों और साहित्यकारों पर बातचीत होती रही।
पंजाब के लेखन के बारे में चिंतित भी नजर आए और कहने लगे, 'पंजाब के लेखक लिख तो रहे हैं लेकिन, कुछ नया नहीं कर पा रहे हैं।’
ज्यादा देर तक नहीं रुके, क्योंकि उन्हें कहीं और भी जाना था। वह मूसलाधार बारिश में आए थे और उसी मौसम में निकल गए। इस बीच हमने फोटो खिंचवाई थी, उसे मैंने फेसबुक पर डाल दिया था। इस बीच कोरोना ने अपना कहर ढाया और पूरी दुनिया को उसकी औकात बता दी। हर कोई अपने ही घर में कैद होने के लिए मजबूर हो गया।
भाग तीन
बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया था। कई बार फोन पर बातचीत हो जाती थी। कोरोना पर लिखे दो उपन्यास 'कमरा नंबर 909’ और 'शंख में समंदर’ पर उन्होंने अलग-अलग बच्चों से डिजर्टेशन करवाया। खास बात यह रही, जब भी उनका किसी काम से जालंधर आना हुआ, वह मुझ से मिल कर गए और मुझे अपने हाथों से थीसिस सौंप कर गए। एक लेखक की इससे ज्यादा इज्जत नहीं हो सकती। एक दिन फोन आया और कहने लगे, 'एक खुशखबरी देनी है।’
मैंने कहा, 'नेकी और पूछ-पूछ।’
उन्होंने कहा, 'आपका उपन्यास 'कुमुदिनी’ हमने एम.ए के पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया है।’
मैं सुन कर हैरान हो गया और मन खुशी से झूम उठा। मुझे अपने कानों से सुन कर भी यकीन नहीं हो रहा था।
उन्होंने फिर कहा, 'उपन्यास पहले लग गया था, आपको सूचना लेट दे रहा हूं। असल में, अब इसका सिलेबस बन गया है, जिसे मैं व्हाट्सएप पर शेयर कर दूंगा।’ वह बिल्कुल सहज रूप से बातें कर रहे थे। मैं समझ नहीं पा रहा था, क्या बात करूं और कैसे धन्यवाद करूं। काफी लंबे समय तक बातचीत होती रही।
कुछ ही समय के बाद सिलेबस की कॉपी व्हाट्सएप पर आ गई थी। मैंने फोन करके पूछा, 'क्या फेसबुक डाला जा सकता है?’
उन्होंने जवाब दिया, 'डाला जा सकता है।’
मैंने अगले दिन इसे फेसबुक पर डालने से पहले एक बढ़िया-सा कैप्शन सोचने लगा। मैंने लिखा, मेरे कुछ उपन्यास पहले भी यूनिवर्सिटीज के कोर्स का हिस्सा हैं, लेकिन मुझे खुशी इस बात की है, पंजाब सेंट्रल यूनिवर्सिटी, बठिंडा के कोर्स में शामिल होना अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। मेरे लिए खुशी की बात यह है, जो उपन्यास मैंने 2004 में लिखा था, वह भी दो यूनिवर्सिटीज में एम.ए के पाठ्यक्रम में शामिल है। और बीस साल के अंतराल के बाद छपा हुआ उपन्यास भी एम.ए के पाठ्यक्रम में शामिल है। यह बात मेरी निरंतरता को दर्शाती है। मुझे लगता है, जितनी ऊर्जा के साथ मैं बीस साल पहले लिखता था, उतनी ऊर्जा के साथ बीस साल बाद भी लिख रहा हूं। मैं मां सरस्वती से प्रार्थना करता हूं कि यह ऊर्जा, तब तक बनी रहे, जब तक मैं लिखता रहूं। उस दिन मैं खुश था, मेरे मन के बहुत करीब उपन्यास एम.ए के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुका था। समय अपनी गति से गुजर रहा था।
सारा दिन फेसबुक पर दोस्तों की बधाइयां आती रहीं। कुछ दोस्तों के फोन भी आए। हर कमेंट पढ़ कर मुझे लगता, इस तरह की खुशियां किसी बड़े पुरस्कार मिलने से भी बड़ी होती हैं। एक दिन अचानक डॉक्टर राजेन्द्र सेन का एक दिन फिर फोन आ गया और कहने लगे, 'आपको बोर्ड ऑफ स्टडीज का मेंबर बनाया है। उसकी डिटेल मैंने आपके व्हाट्सएप पर भेज दी है।’
मुझे लगता है मैं मुद्दे से भटक रहा हूं। मुझे ऐसा लगता है, लेखक का और पाठक का रिश्ता एक हाथी का दूसरे हाथी से मिलने जैसा होता है। डॉक्टर राजेन्द्र सेन ने मेरे लिए उस हाथी का काम किया, जिसकी जरूरत दूसरे हाथी को होती है। ऐसा माना जाता है हाथी हाथी झुंडों में चलते हैं और जंगल में इको फ्रेंडली रिश्ता निभाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वह एक जंगल में ज्यादा देर तक नहीं रुकते। उनकी खुराक की जरूरत एक जंगल पूरा नहीं कर सकता। इसलिए वह जंगल बदलने में विश्वास रखते हैं। ऐसे ही लेखक को भी अपनी रचनाओं को विभिन्न मुद्दों पर लिखना चाहिए। उन्हें भी हाथियों की तरह नई कृतियों में नया संसार बसाना चाहिए। भले ही वह फिक्शनल हो लेकिन सच के नजदीक हो। एक ऐसा संसार जिसे पढ़ कर लगे यह मेरा संसार है। कभी लगे लिखी गई बातें सच हैं, कभी लगे झूठ हैं। वैसे भी, हाथी जब चलते हैं, एक नया रास्ता बनाते हैं, ताकि बाकी के जानवर भी उसी पगडंडी को अपना कर किसी दूसरे जंगल में जा सकें, ताकि और जंगल आबाद कर सकें। आज के दौर में लेखक और पाठक के रूप में ऐसे साथियों की जरूरत है, जो एक दूसरे के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सके, ताकि ईको फ्रेंडली समाज का निर्माण किया जा सके। इसलिए यह जरूरी है। इसलिए कहा जाता है शब्द रहेंगे साक्षी। और साक्ष्य जिंदा रहें, इस पर बहुत मेहनत करने की जरूरत है।
डॉ. अजय शर्मा