संभल जा बन्दे 

ललित बेरी की कलम से कटाक्ष करती हुई एक कविता

संभल जा बन्दे 
ललित बेरी।

इसे कहो नियति, 
या कहो दहशत, 
किसी डर से किसी खौफ से, 
हम सहमे घबराये हुए हैं।

दोष देते हैं,
भगवान को, 
बताते हैं कहर, 
खुदा का, 
कारण तो खुद बनाये हुए हैं।

न जाने कितने,
बरसों बाद, 
एक ही छत तले, 
अपने ही घर में, 
समय बिताये हुए हैं।

ठहर जा,
संभल जा,
न ले बैर कुदरत से,
तू खुदा नहीं बन्दे, 
खुद को समझाए हुए है।

कहाँ हैं वो,
बताते थे खुद को, 
ठेकेदार धर्म के, 
अब अज्ञानता का पर्दा,
हम आँखों से हटाए हुए हैं।

दौड़ लगी थी,
ग्रहों को पाने की, 
सृष्टी को हराने की, 
तुम्हारे परमाणुओं को, 
कीटाणु हराये हुए हैं।
-ललित बेरी