सच कहने से नहीं डरते रूपसिंह चंदेल

सच कहने से नहीं डरते रूपसिंह चंदेल

रूपसिंह चंदेल जी से मेरी साक्षात मुलाकात कभी नहीं हुई. हा लॉकडाउन लगने के बाद एक बार (यदि मैं भूल नहीं रहा तो अगस्त,2021) डॉ.अनिल पांडेय ने चन्देल जी का लाइव साक्षात्कार लिया था और उसमें मैं भी जुड़ा था. साक्षात्कार खत्म होने के बाद मैंने अनिल से कहा, “रूपसिंह चंदेल बड़े साहित्यकार हैं, मुझे उनका मोबाइल फोन नंबर देना, किसी दिन बात करूंगा.”  उस दिन मुझे अपने आप पर आश्चर्य भी हुआ था कि इतने बड़े साहित्यकार को पढ़ना तो दूर मैंने कभी नाम भी नहीं सुना था. उस दिन अपने आप पर शर्म भी आई थी. असल में हम लेखकों की समस्या यही है कि हम अपने अलावा या फिर जो लोग अपने घेरे में होते हैं उन्हीं को जानते हैं और उन्हीं को पढ़ते हैं. हम अपना दायरा बढ़ाने के बजाए कम करते जा रहे हैं. जबकि हकीकत यह है कि लेखक का दायरा जितना बड़ा होगा उसके पाठक उतने ही अधिक होंगे. अनिल के साक्षात्कार के अगले ही दिन  मैंने चन्देल जी को फोन किया. एक घंटा से अधिक विभिन्न विषयों पर हम बातें करते रहे थे. उनसे बात करके मैं पहले से अधिक प्रभावित हुआ और जल्दी ही उनसे फेसबुक में जुड़ गया. फेसबुक पर एक-दूसरे की पोस्ट पर पसंद या टिप्पणी तक ही हम सीमित रहे. मैंने कई बार सोचा उनसे उनका कोई उपन्यास मांगूं या उनके प्रकाशन के बारे में पूंछूं और उसे मंगवा लूं. लेकिन ऐसा भी नहीं हो पाया. वह इसलिए नहीं कि मैं उपन्यास खरीदकर पढ़ना नहीं चाहता था. उसके दो कारण थे. एक तो मैं खुद अपने उपन्यास लेखन में व्यस्त हो जाता हूं जिसके चलते मेरी सुध-बुध खोई रहती है और दूसरा कारण यह कि कितनी ही बार मैंने फेसबुक में उन्हें रूसी लेखकों के उनके अनुवाद या दॉस्तोएव्स्की की उनकी लिखी मौलिक जीवनी के अंश प्रकाशित करते पाया. यह देखकर मेरे मन में उनकी एक छवि बन गई कि यह तो कॉमरेड लेखक हैं, जो बहुत अक्खड़ स्वभाव के होंगे. ऊपर उनकी दाढ़ी ने मेरे इस संशय पर मोहर लगा दी. असल में यह हमारी कमजोरी है कि हम लोग बहुत जल्दी जजमेंटल हो जाते हैं. लेकिन जल्दी ही उन्हें लेकर मेरा भ्रम टूट गया था.
अब आता हूं उन पर साहित्य सिलसिला के अतिथि साहित्यकार विशेषांक पर. इस बात पर काफी सोचता रहा कि किसे चुना जाए. जब मैं सोचता हूं तो लगातार मेरे मन में यह सोच हावी रहती है जब तक उस बात पर मोहर न लग जाए कि यह साहित्यकार इस बार ’साहित्य सिलसिला’ का अतिथि लेखक होगा. एक दिन अचानक मेरे दिमाग में पता नहीं कैसे रूपसिंह चंदेल जी का नाम आ गया  और मैंने तुंरत मैसेंजर पर मैसेज किया और उनका कांटेक्ट नंबर भेजने के लिए लिखा. कुछ समय के बाद पाया, कांटेक्ट नंबर आ चुका है. कांटेक्ट नंबर देख कर मुझे अपने आप फिर से शर्मिंदगी हुई क्योंकि कांटेक्ट नंबर पहले से ही मेरे मोबाइल में पड़ा हुआ था. सुबह के सात बजे थे. मैंने उन्हें फोन मिलाया. कुछ इधर-उधर की साहित्यिक चर्चा हुई और बात खत्म हो गयी. बाद मैं इस बात का अफसोस करता रहा कि जिस बात के लिए मैंने उन्हें फोन किया था वह तो की ही नहीं. अगले दिन उसी समय उन्हें फोन किया और अपना मंतव्य बताया. वह सहर्ष मान गए. यह बात होने के बाद मैंने फेसबुक में इस बारे में पोस्ट लिखी और उसे अस्सी फेसबुक मित्रो को टैग किया. पोस्ट चन्देल जी ने देखी और मुझे पोन किया, और कहा, “शर्मा जी, आपने जिन भी लोगों को पोस्ट टैग की है, उनमें से दो-तीन को छोड़कर कोई भी मेरा परिचित नहीं. जो परिचित नहीं वह मुझ पर क्या लिखेंगे. बात सही थी. मैंने उनसे उनके मित्रो के मोबाइल नंबर मांगे जो उन पर लिख सकते थे. उन्होंने मुझे अठारह साहित्यकारों के नंबर भेज दिए. मैंने सभी को व्हाट्सएप पर मैसेज कर दिया. धीरे-धीरे जवाब आने शुरू हो गए और उनमें से ज्यादातर साहित्यकारों ने लिखा.
प्रायः फोन पर  साहित्य को लेकर हमारी चर्चा होती रही. इस बीच उन्होंने मेरे उपन्यास त्रयी पर लिखा, और उस लेख को अपनी आलोचना पुस्तक ’साहित्य और साहित्यकार: एक मूल्यांकन’ (लिटिल बर्ड पब्लिकेशंस, नई दिल्ली) में प्रकाशित भी किया. इतने दिनों हमारे बीच हुई वार्तालाप से मुझे एहसास हुआ कि रूप सिंह चंदेल की जो छवि मेरे मन में बनी थी वह बिल्कुल सही नहीं थी, क्योंकि वह दिल के इतने कोमल और संवेदनशील हैं, जैसे कि एक साहित्यकार को होना चाहिए. धीरे-धीरे उनके कथा साहित्य के बारे में भी जानने का मौका मिला. कहने का तात्पर्य यह कि उनके अंदर साहित्यकार के रूप में एक बच्चा कैसे बैठा हुआ है जो हर समय जिज्ञासा से भरा रहता है. यह वही जिज्ञासा है जो किसी भी लेखक को  निरंतर लिखने की प्रेरणा देती है. इस बीच उस जिज्ञासु बच्चे को भी जानने का थोड़ा बहुत मौका मिला. उनकी बातें सुनकर ऐसा लगता था जैसे उनके कनस्तर में आज भी आटा बहुत है जो लगातार साहित्य रूपी रोटियां सेंक रहा है. जबकि इस उम्र में ज्यादातर साहित्यकार चुक जाते हैं, लेकिन रूप सिंह चंदेल से बातें करके ऐसा लगता है जैसे उन्होंने अभी लिखना शुरू किया है और लिखते रहेंगे. उनका स्वयं यह कहना है कि वह मृत्युपर्यंत लिखते/पढ़ते रहना चाहते हैं. उन्होंने एक ऐसा पौधा रोपित किया है जो समय-समय पर अपने फल देता रहता है. मुझे लगता है पौधा रोपित करना ही मुश्किल होता है क्योंकि रोपित करने के बाद भी मुश्किलें खत्म नहीं होतीं. उसे हर पल सींचना होता है. सींचते-सींचते उम्र निकल जाती है, तब जाकर वह फल देना शुरू करता है और ताउम्र देता रहता है. उनकी पुस्तकों की संख्या देखकर यही लगता है कि उन्होंने सींचने में बहुत मेहनत की है.  यहां यह लिखना अनपेक्षित नहीं होगा कि उन्होंने बहु-विधाओं में सृजन किया है. उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-संस्मरण, आलोचना, साहित्यिक लेख, जीवनी (दॉस्तोएव्स्की के प्रेम – महान रूसी लेखक फ्योदोर मिखाइलोविच दॉस्तोएव्स्की की मौलिक जीवनी), बाल और किशोर साहित्य के साथ उन्होंने प्रभूत मात्रा में अनुवाद कार्य भी किया है, जिसमें लेव तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास ’हाजी मुराद’, तोलस्तोय पर 30 संस्मरण (लियो तोलस्तोय का अंतरंग संसार) और हेनरी त्रोयत की लिखी तोलस्तोय की जीवनी ’तोलस्तोय’ (656 पृष्ठ) तथा दॉस्तोएव्स्की के पत्र और उन पर संस्मरणों की पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की का अंतरंग संसार’ का अनुवाद किया है.    

अंक निकालने के लिए मैं उनसे फोन पर लगातार लंबी बातें करता. उन पर लिखने वालों के लेख लगातार मिल रहे थे. अपने सभी मित्रो को चन्देल जी ने केवल एक बार कहा था और तीन लोगों को छोड़कर मुझे किसी को दोबारा नहीं कहना पड़ा था.  मैंने पाया कि मैंने अब तक जितने भी अंक निकाले थे, इस को अंक को निकालने में जितना सहयोग मुझे चंदेल जी ने दिया किसी साहित्यकार ने नहीं दिया था. यहां यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैं उन सम्पादकों में नहीं जो लेखकों से धन लेकर उन पर अंक प्रकाशित करते हैं. ऐसा नहीं कि कुछ लेखकों से मुझे ऐसे प्रस्ताव नहीं मिले, लेकिन ऐसा करना मैं सम्पादकीय दायित्व के विरुद्ध मानता हूं. ऊपर मैंने चन्देल जी से प्राप्त रचनात्मक सहयोग की बात की. जिन भी लेखकों पर अंक निकाले उनसे केवल रचनात्मक सहयोग ही लिया.
कई बार चन्देल जी से बात होती तो मैं कहता, पत्रिका निकालने के बाद हर बार सोचता हूं कि अब अंक नहीं निकालूंगा. उसके दो कारण हैं. एक तो अपना क्रिएटिव प्रोसेस भंग होता है, दूसरा जो मित्र रचनाएं भेजते हैं किसी कारण न छाप पाओ तो नाराज भी हो जाते हैं. पत्रिका छपने के बाद सबसे मुश्किल काम उसे लेखकों को भेजने का होता है. लिफाफे में डालना, नाम और पता लिखना, फिर पोस्ट करने जाना, थका देता है. ऐसा कई बार हुआ कि पत्रिका छपने के बाद कई दिन घर में पड़ी रही. पोस्ट करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. इस बार ऐसा नहीं हुआ. पत्रिका मिली, तुरंत पते लिखे और भिजवा दी. 
अंक निकालने में भी काफी परेशानी अनुभव हो रही थी क्योंकि सबके मैटर के फांट अलग थे. एक को कन्वर्ट करता तो दूसरा टूट जाता. इसी समस्या से मैं अंत तक जूझता रहा. लेकिन चंदेल जी ने मुझ पर कभी प्रेशर नहीं बनाया. मैं भी हर समस्या उनसे साझा कर लेता था. आखिर पत्रिका छप कर आ गई और मैंने 50 प्रतियां चंदेल जी को भिजवा दीं.
बात यहीं पर खत्म नहीं हुई, क्योंकि जैसे ही मैंने पत्रिका पोस्ट की वैसे ही उन्होंने एक पोस्ट लिख कर फेसबुक पर डाली जो सुभाष नीरव के बारे में थी. इस दौरान मैंने पाया रूपसिंह चंदेल बड़े स्टेट फारवर्ड हैं, वह कोई भी बात किसी को उसके मुंह पर कहने की हिम्मत रखते हैं. उन्हीं दिनों एक घटना डॉ. संजीव कुमार के साथ घटी जब उन्होंने कथाबिंब पत्रिका का संपादन शुरू किया. चन्देल जी ने उन्हें सुझाव दिया कि वह पत्रिका में डॉ. माधव सक्सेना ’अरविन्द’ का नाम पत्रिका के संस्थापक संपादक के रूप में अवश्य दें.  संजीव जी से उन्होंने फोन पर इस बारे में लंबी बातचीत की थी,और संजीव जी ने स्वीकार भी किया था.  लेकिन  उनके सम्पादन में प्रकाशित पत्रिका में माधव सक्सेना जी का नाम नहीं था. रूपसिंह चंदेल ने फेसबुक में इस बात की चर्चा की. इस बात को लेकर डॉक्टर संजीव कुमार जी उनसे नाराज हो गए. हालांकि उनकी यह नाराजगी कुछ दिनों तक ही रही थी. लेकिन कहते हैं कि जो अपने अंदर सच को सच कहने की कुव्वत रखते हैं वे लोग किसी से नहीं डरते. डरना चन्देल जी के स्वभाव में नहीं है. अपने उपन्यास ’गलियारे’, जो ब्यूरोक्रेसी करप्शन को लेकर है,  की चर्चा करते हुए उन्होंने एक बार बताया कि किसी लेखक ने उनसे पूछा, “जिस विभाग में आप कार्य करते थे उसके भ्रष्टाचार को उद्घाटित करते हुए आपको भय नहीं लगा”. चन्देल ने उन्हें कहा था, “भय लगता तो लिखता ही क्यों?”
बातचीत के दौरान कई बार उनसे उनकी रचना-प्रक्रिया के बारे में जानने का भी मौका मिला. वह सुबह जल्दी उठकर सैर के लिए निकल जाते हैं. नौ और दस बजे के बीच कंप्यूटर पर बैठ जाते हैं. दोपहर एक बजे तक काम करते हैं. लंच के बाद एक घण्टा विश्राम, फिर कुछ पढ़ते हैं और आवश्यकतानुसार रात में भी एक या दो घण्टा काम करते हैं. उनके अनुसार जीवन और साहित्य के प्रति उनका यह अनुशासन ही उन्हें स्वस्थ रखे हुए है. यह व्यस्तता उन्हें साहित्यिक खुराफातों से भी दूर रखे हुए है. मैं प्रायः सोचता हूं कि जितना काम रूपसिंह चंदेल ने किया है उतना मान उनके हिस्से में नहीं आया है. कई बार इस मुद्दे पर सोचता हूं तो मुझे दो कारण मुख्य तौर पर नजर आते हैं. जहां तक उनसे बातें करके मैंने समझा है, उसमें से पहला कारण तो यह कि मित्रो की अपेक्षा उनके साहित्यिक दुश्मन अधिक हैं. शायद वह इसलिए कि वह लगातार काम कर रहे हैं. मुझे एक कहावत याद आ रही है ’नो बडी बीट्स द डेड डॉग.’ काम करने वालों पर तो लोगों का चीखना बनता ही है. क्योंकि उन्हें लगता है कि वह लगातार काम क्यों कर रहे हैं! वह हमारे जैसे क्यों नहीं. दूसरा कारण यह है कि वह स्वभाव से स्पष्टवादी हैं. यह बात भी कई बार लोगों को खलती है. उनकी डिक्शनरी में किसी कमजोर रचना की तारीफ करने जैसा शब्द नहीं है. यह आभासी दुनिया का ही कमाल है कि हम लोग दूर से बैठे हुए भी एक दूसरे को ऐसे जानते होते हैं जैसे हम एक-दूसरे को सदियों से जानते हैं.
कहते हैं बात निकली है तो दूर तलक जाएगी. रूपसिंह जी को भी दोस्तों से शिकायतें बहुत हैं. ’साहित्य सिलसिला’ के उन पर केन्द्रित अंक के लिए दो लेखकों ने पहले ही अपनी व्यस्तता बता कर मना कर दिया था. जिन तीन लेखकों ने कहकर भी लेख नहीं दिए उनमें सुभाष नीरव जी भी थे. सुभाष नीरव चन्देल जी के लगभग पैंतालीस वर्ष पुराने मित्र हैं.  मैंने उनसे फोन करके अनुरोध किया. चन्देल जी के मुताबिक 12 जून,2024  को साहित्य अकादमी में उनसे हुई मुलाकात में चन्देल जी ने भी उन्हें कहा था. नीरव जी ने निर्धारित तिथि से पन्द्रह दिनों के अतिरिक्त समय की मांग की. इस दौरान वह एक साहित्यिक कार्यक्रम में भोपाल गए. पन्द्रह दिन का अतिरिक्त समय व्यतीत हो जाने के बाद मैंने उन्हें फोन किया तो कहा, “लिख लिया है, टाइप करना रह रहा है. दो-तीन दिन में भेज दूंगा.” यह जानकारी मैंने चन्देल जी को साझा की. उनके सुझाव पर मैंने चार दिन बाद नीरव जी को फोन किया. उन्होंने कहा कि उनकी कमर में कुछ तकलीफ हो गयी है, डॉक्टर ने कंप्यूटर पर न बैठने की सलाह दी है, इसलिए लेख टाइप नहीं हो पाया. यह बात भी मैंने चन्देल जी को बतायी, क्योंकि नीरव के लेख को लेकर वह बहुत उत्साहित थे. उत्साहित क्यों न होते, आखिर पैंतालीस वर्ष पुरानी मित्रता थी. भले ही छह वर्षों तक किसी गलतफहमी के कारण उनके बीच संवादहीनता रही थी, लेकिन पुरानी मित्रता तो मित्रता ही होती है. लेकिन जब मैं अंक निकाल रहा था तब दोनों के बीच सब ठीक हो चुका था. नीरव जी से हुई मेरी बात सुनने के बाद चन्देल जी ने कहा, “आप उनसे लिखे पृष्ठों की फोटो मांग लें, टाइप तो कोई भी कर लेगा.” लेकिन अपनी बात समाप्त होते ही वह पुनः बोले, “नहीं, शर्मा जी, आप अब नीरव जी को बिल्कुल ही फोन नहीं करेंगे, क्योंकि अगर उन्होंने लिखा होता तो यह बात स्वयं उन्हें कहनी चाहिए थी. मेरा अनुमान है कि उन्होंने नहीं लिखा और न ही लिखेंगे.” लगता है पुरानी गांठ पूरी तरह से खुली नहीं है. 

चन्देल जी की उस पोस्ट के बाद एक दिन सुभाष नीरव जी का फोन मुझे आया, लंबी बातचीत हुई. कई बातें उन्होंने बताईं, कई बातें मुझे पहले से रूपसिंह जी से पता चल चुकी थीं. लेकिन मैंने अपने जीवन में एक बात शुरू से गांठ बांधी हुई है कि सबकी बात सुन लो लेकिन किसी की बात किसी को मत कहो. मुझे फिर से किसी शायर की पंक्तियां याद आ रही हैं
उनकी कुछ तो मजबूरियां रही होंगी 
वर्ना जमाने में कोई बेवफा नहीं होता.
साहित्यिक दोस्ती और दुश्मनी की उम्र बहुत छोटी होती है. मैं बलवंत गार्गी की एक बात कोट करना चाहूंगा. उन्होंने पंजाबी में लेखकों के रेखाचित्र लिखे थे. जिन लेखकों पर लिखे वह भी रोते थे कि हमारे बारे में क्या लिख दिया! जिन पर नहीं लिखे वे भी रोते थे कि हमारे बारे में क्यों नहीं लिखा! 
जैसाकि मैंने पहले कहा, मैं उनका ’रमला बहू’ उपन्यास पढ़ना चाह था, जिसकी बहुत चर्चा सुनी थी. उन्हीं दिनों उनका नया उपन्यास ’पांसा’ छप कर आया था. उन्होंने ’रमला बहू’ के साथ ’पांसा’ और ’उड़ान’ उपन्यास भेज दिए. ’पांसा’ उपन्यास दिलीप पांडेय पढ़ने के लिए ले गए. मैंने कुछ दिन के बाद ’रमला बहू’ पढ़ना शुरू किया. गांव की पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ यह एक बेहतरीन उपन्यास है. पढ़ते हुए लग रहा था मानो पंजाब के किसी गांव के किसान की कहानी  है. उपन्यास में गजब की रोचकता है. चंदेल जी के पास बात कहने की कला है. मैं उपन्यास पढ़ता गया और हर बीस पच्चीस पन्ने पढ़ने के बाद हर पन्ने में सोचता अब रमला बहू इस पन्ने पर प्रकट होगी. मैं हर पन्ने पर नाउम्मीद होता क्योंकि रमला बहू लगभग 130 पन्ने के बाद आई. जिस बात का इंतजार मुझे पढ़ते हुए हो रहा था, वह पूरा हुआ और मैंने सुख की सांस ली. मुझे लग रहा था अगर मैं उपन्यास लिखता तो रमला बहू को शुरू के पन्नों पर लेकर आता. हर उपन्यासकार का अपना शिल्प होता है, अपनी कला होती है. लेकिन एक पाठक जब पढ़ता है उसकी उम्मीद भी लेखक से बंध जाती है. वैसे भी जब कोई लेखक किसी रचना को पढ़ता है तो उसके मन में एक समानांतर कहानी चलनी शुरू हो जाती है. अगर चलती है तो यही लेखक की कामयाबी होती है, क्योंकि पाठक उस रचना के साथ हो लेता है. जो रचनाएं ऐसा करने में सक्षम नहीं हैं, वे रचनाएं कहीं न कहीं दम तोड़ देती हैं. ऐसा ही किस्सा रमला बहू पढ़ते हुए मेरे साथ हुआ और मैं जान पाया रूपसिंह चंदेल जी बड़े लेखक हैं. मैं कई बार सोचता हूं, इतने उपन्यास लिखने के बाद रूपसिंह चंदेल जी का कोई उपन्यास अभी तक किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बना! उनका हर उपन्यास आकार में बड़ा है, शायद यही कारण रहा होगा. हां, रमला बहू के बारे में उन्होंने मुझे बताया था कि उनके इस उपन्यास का संक्षिप्त रूपान्तरण अमर उजाला अखबार ने धारावाहिक रूप में 1993 में प्रकाशित किया था. शायद 12 या 14  किश्तों में. इसका मतलब है उपन्यास कम पन्नों में समेट दिया गया था. मैंने उन्हें कहा, उन सम्पादित पन्नों का उपन्यास छपवाएं, क्योंकि इतने आकार का उपन्यास निश्चित रूप से किसी यूनिवर्सिटी का हिस्सा बन सकता है. वैसे भी अब बहुत लंबे उपन्यास कम पढ़े जाते हैं. पाठक भी कम हैं और लंबे उपन्यास पढ़ने और लिखने का चलन भी नहीं रहा. कई बार लगता है कि चंदेल जी पर रूस और भारत के पुराने लेखकों का प्रभाव अधिक है, शायद इसलिए उनके उपन्यास अधिक विस्तार ले लेते हैं. रूसी लेखकों की कृतियां इतनी लंबी होती हैं, आजकल कोई जिगरे वाला ही उनको पढ़ पाएगा. ’युद्ध और शांति’, ’अन्ना कारेनिना’, ’ब्रदर्स करमाजोव’, ’इडियट’ (बौड़म) और हिन्दी के यशपाल (झूठा-सच), भगवती चरण वर्मा (टेढे-मेढे रास्ते), शिवप्रसाद सिंह (नीला चांद और ’कोहरे में युद्ध’ और ’दिल्ली दूर है’ (एक ही उपन्यास के दो भाग), अमृतलाल नागर (बूंद और समुद्र, अमृत और विष), द्रोणवीर कोहली (वाह कैंप), तकषि शिवशंकर पिल्लै, एस.एल. भैरप्पा (छोर, तन्तु आदि), आदि लेखकों के उपन्यासों ने उन्हें अवश्य प्रभावित किया है. उन्होंने बताया कि वह बहुत पढ़ते हैं और उन्हें आज के लेखकों से शिकायत है कि वे कम पढते हैं. उनका यह भी मानना है कि आज भी बड़े उपन्यासों को पढने वाले पाठक हैं, बेशक पहले की अपेक्षा कम हैं. आज पाठक के पास समय का अभाव है, इसलिए वह छोटे उपन्यास पढ़ना पसंद करता है, इस बात से वह सहमत हैं. चन्देल जी एक किस्सोगो लेखक हैं. उनकी भाषा सरल है, जो पाठक को साथ लेकर चलने में सक्षम है. 
निश्चित रूप से रूपसिंह चन्देल हमारे समय के एक बड़े साहित्यकार हैं. नवनीत मिश्र जी ने अपने संस्मरण में उन्हें ’साधक’ और हिन्दी का बिमल मित्र कहा, तो इला प्रसाद जी ने उन्हें मित्र जीवी साहित्यकार कहा है. मैंने भी उन्हें मित्र जीवी ही पाया. वह दीर्घजीवी हों और इसी प्रकार साहित्य सृजनलीन रहें. मेरी शुभकामनाएं.


            डॉ. अजय शर्मा, जालंधर