खबर डूबी पर कहानी हमेशा रहेगी
पत्रकारिता एक ऐसे दौर से गुज़र रही है, जहां उसकी आत्मा थक चुकी है। संपादकीय स्वतंत्रता तो मानो चुपचाप आत्मसमर्पण कर रही हो। आइए देखें पत्रकारिता और जन-संचार का भविष्य किधर जा रहा है?
नरविजय यादव
पत्रकारिता और संचार की दुनिया की फितरत वैसे ही बदली है, जैसे कोई सांप अपनी केंचुल छोड़ता है। कभी कम्युनिकेशन का मतलब होता था- प्रेस विज्ञप्ति, प्रेस कॉन्फ्रेंस, आधा पेज कवरेज, और अखबार के रिपोर्टर को की गई एक विनम्र फोन कॉल। वो जमाना अब इतिहास बन चुका है।
आज दुनिया फोन की स्क्रीन ज़्यादा देखती है, पढ़ती कम है। इसीलिए आपकी प्रेस रिलीज अब आपकी इंस्टाग्राम स्टोरी है। आपका नज़रिया अब आपकी लिंक्डइन पोस्ट है, और क्राइसिस वाला आपका स्टेटमेंट अब एक 30 सेकेंड की रील है, जो तय करती है कि लोग आप पर भरोसा करेंगे या ट्रोल।
कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन के धुरंधर नीरज झा के पॉडकास्ट बीयॉन्ड माई ब्रांड में, जब अनुभवी पत्रकार विशाल कृष्णा से बात करते देखा, तो अहसास हुआ कि अब दौर प्लेटफॉर्म्स का नहीं, परसेप्शन का है। पत्रकारिता थकी हुई लगती है। धीरे-धीरे संपादकीय स्वतंत्रता खोती हुई। जब मुख्यधारा का मीडिया ताक़तवर घरानों के नियंत्रण में हो, तब सवाल ‘सच’ का नहीं रहता, बल्कि ‘नैरेटिव के कंट्रोल’ का होता है।
फिर भी, इस कोलाहल के बीच एक चीज़ अब भी मज़बूती से खड़ी है, वो है स्टोरीटेलिंग यानी कहानी सुनाने की ताक़त। आप चाहें तो दुनिया को एआई से तैयार लेखों से भर दें, पर एक सच्ची आवाज़ आज भी शोर को चीर देती है। एआई आपको डेटा दे सकता है, पर बुद्धि नहीं। वो तथ्य जोड़ सकता है, पर नज़रिया नहीं दे सकता। नज़रिया आता है जीए हुए अनुभवों से। असफल प्रयासों से, देर रात न्यूज़रूम की बहसों से, और उन भावनात्मक क्षणों से जहां शब्द नहीं, संवेदना बोलती है। जैसा कि विशाल कृष्णा कहते हैं, “विचारशील लेखकों की हमेशा जरूरत रहेगी।”
मानसिक स्वास्थ्य के नज़रिए से देखें तो मीडिया आज सामूहिक बेचैनी का प्रतिबिंब बन गया है। इंसान की ध्यान देने की क्षमता यानी अटेंशन स्पैन अब आठ सेकेंड की डोपामाइन हिट बन चुकी है, जिसे हम मोबाइल की रील और शॉर्ट कहते हैं। अब लोग लंबा लेख तभी पढ़ते हैं जब वो किसी गहरे सच या भावनात्मक ईमानदारी को छू ले। अब किसी की रेपुटेशन न्यूज़रूम में नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पलों में बनती या बिगड़ती है।
चैटजीपीटी, इनफ्लुएंसर और अल्गोरिदम के इस युग में कॉरपोरेट कम्युनिकेशन हेड अब सिर्फ किसी कंपनी का प्रवक्ता नहीं, बल्कि एक शांत क्राइसिस मॉन्क है, जो धारणा प्रबंधन को ऐसे संभालता है मानो किसी एयरटाइट चैंबर में ध्यान कर रहा हो। जैसा कि नीरज झा कहते हैं, “क्राइसिस मैनेजमेंट तब नहीं शुरू होता जब कुछ गलत हो जाए, बल्कि तब जब आप समझ लें कि कौन सी चिंगारी डिजिटल आग बन सकती है।” उनके अनुसार 90 प्रतिशत क्राइसिस कम्युनिकेशन प्रोएक्टिव अवेयरनेस है, न कि रिएक्टिव स्टेटमेंट। यह विचार पूरी तरह जुड़ता है ब्लिस मेडिटेशन के दर्शन से, जहां कोई एक्शन लेने से पहले जागरूकता की बात की जाती है।
वे यह भी कहते हैं कि “पत्रकारिता सिखाई जा सकती है, लेकिन प्रतिष्ठा प्रबंधन कोई स्कूल नहीं सिखा सकता।” यही कारण है कि 10-12 साल के अनुभवी पत्रकार सबसे स्वाभाविक पीआर लीडर बनते हैं। वे भावनाओं के बीच की रेखा पढ़ लेते हैं, शब्दों में निहित मंशा समझ लेते हैं, और संचार की गहराई को महसूस करते हैं। वे सिर्फ लिखते नहीं, अनकही बातों को समझ लेते हैं।
अंत में बात साफ है। भविष्य उन्हीं का है जो कम्युनिकेशन को कॉन्शसनेस से जोड़ पाएंगे। सोशल मीडिया पर पोस्टिंग का शोर ‘प्रेज़ेन्स’ के मकसद को न दबा दे। धारणा के बिना रील महज शोर है, विश्वसनीयता के बिना प्रेस विज्ञप्ति बेजान है, और भावना के बिना एआई सिर्फ एक गूंज है।
आने वाले समय को चाहिए, ऐसे लेखक जो रणनीतिक सोच रखते हों। ऐसे रणनीतिकार जो एक कवि की तरह लिखते हों। ऐसे पीआर प्रोफेशनल जो बोलने से पहले ध्यान करते हों, और ऐसे पत्रकार जो इस बात को समझते हों कि शब्दों में ताकत होती है और वे सेहत के लिए हानिकारक भी हो सकते हैं। क्योंकि आंतरिक स्पष्टता के बिना संचार सिर्फ शब्दों की थकान है।
जैसा कि ब्लिस कम्युनिटी में कहा जाता है कि “आप जो सोचते हो, वही पाते हो।” अगर संचार कर्मी सिर्फ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बात पहुंचाने की सोचेंगे, तो उन्हें वो मिल तो जाएगा, लेकिन वे लोगों का भरोसा नहीं जीत पाएंगे। परंतु अगर वे जागरूकता और सही धारणा के साथ सोचेंगे, तो दीर्घकालिक प्रतिष्ठा हासिल कर पाएंगे। यही तो असली खेल है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
(विचार व्यक्तिगत हैं।)
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