मेरी यादों में जालंधर - भाग उन्नीस 

किताबें उधार लेकर क्यों पढ़ें? 

मेरी यादों में जालंधर - भाग उन्नीस 

- कमलेश भारतीय
वैसे तो यादों की पिटारी किसी की कभी खत्म नहीं होती, लेकिन क्या क्या, कहाँ छिपा हुआ है , किस कोने में छिपा है, यह खुद पिटारी रखने वाला भी नहीं जानता क्योंकि यादें हमारे अवचेतन में रहती हैं और सही समय पर कैमरे की फ्लैश की तरह कौंध जाती हैं! बिजली की तरह चमकने लगती हैं! बेशक किसी लेखक से कम मुलाकातें रही हों लेकिन उसका योगदान बहुत ज्यादा हो,  फिर तो याद करना बनता है न? 
ऐसे ही जालंधर से जुड़े पत्रकार रहे हैं-‌रमेश कपिला और उनकी पत्नी मधुर कपिला! रमेश कपिला का जिक्र मोहन राकेश के साथ होना चाहिए था, ऐसा बहुत मित्रों ने कहा लेकिन मेरी कपिला  जी से चंडीगढ़ रहते हुए भी बड़ी औपचारिक सी मुलाकातें हैं, उनके निकट व पारिवारिक सदस्य अनिल कपिला जरूर दैनिक ट्रिब्यून में मेरे सीनियर रहे, जिनसे काफी निकटता रही। हम दोनों यदि नाइट ड्यूटी साथ आ जाती तो ड्यूटी खत्म होने के बाद टेबल टेनिस खेलते थे और मैं मोहाली रात को और भी देर से घर पहुंचता ! अनिल कपिला काफी चुहल करने करते थे न्यूज़ रूम में और आज भी उनकी यह आदत गयी नहीं ! रमेश कपिला की पत्नी मधुर कपिला से यादें जुड़ी हैं कि वे संगीत नाटक व चित्रकला कार्यक्र्मों की कवरेज कर पहुंचती थीं और हमारे सम्पर्क की कड़ी साहित्य भी था और वे अच्छी लेखिका थीं ! हम साहित्य की चर्चा सेक्टर ग्यारह स्थित मीरा गौतम के यहाँ करते ! मीरा गौतम के पति रमेश गौतम 'नवभारत टाइम्स' के चंडीगढ़ से विशेष संवाददाता थे । मीरा गौतम ने काफी समय सहारनपुर के किसी काॅलेज में बिताया, फिर वे कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भी कुछ समय रहीं, वे अच्छी कवयित्री हैं और उनके काव्य संग्रह भी आये ! 
यहीं मैं पंजाबी के प्रसिद्ध नाटककार आत्मजीत को भी याद कर रहा हूँ, जो मोहाली रहते हैं और उन्होंने बंटवारे के दुखा़ंत को लेकर लिखी मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' का ऐसा शानदार रूपांतरण किया कि इससे म़ंटो के साथ आत्मजीत भी खूब याद रहेंगे! यही पंजाबी रूपांतरण नवांशहर  में डाॅ देवेंद्र द्वारा गठित ' कला संपर्क' की ओर से हमारे शहर में मंचित किया गया, जिसकी नायिका बीरी थी ! इसके मुख्य किरदार में रेशम थे और बहुत भावपूर्ण अभिनय किया था । 
इन दोनों का एक संवाद आज तक नहीं भूला । जब बेटी के रूप में बीरी मुख्य किरदार से मिलने जेल जाती है तब वह घर की खैर खबर पूछता है तो बेटी बताती है कि हमारी कुतिया ने बच्चे दिये हैं। इस पर पिता पूछता है कि फिर बधाई के रूप में क्या किया? इस पर बेटी जवाब देती है कि मैं यह खबर बांट आई थी ! क्या बात है आत्मजीत ! यहीं से मेरा परिचय आत्मजीत से बना ! 
चूंकि देवेंद्र हमारे ही घर में किराये पर रहते थे तो उन्होंने यह बात कहते मुझे भी जोड़ लिया कि इस छोटे शहर में रंगकर्म में मेरा सहयोग कीजिये ! इस नाटक की रिहर्सल्ज हमारे ही घर हुईं क्योंकि देवेंद्र हमारे  ही रहते थे ! इसकी एक भूमिका गढ़वाली लड़की सुषमा ने निभाई थी तो मुख्य भूमिका रेशम कलेर ने ! निर्दशन पुनीत सहगल का और हमने इसे आर्य स्कूल के पीछे वाले मैदान में नववर्ष की पूर्व संध्या पर पहली बार अपने छोटे से शहर में मंचित किया था ! सुधा जैन और बूटा सिंह कोहेनूर ने संगीत व गायन पक्ष संभाला था ! मेरे बचपन के मित्र और आजकल नवांशहर के प्रसिद्ध डाॅ आदर्श रामपाल ने नाटक मंचन के आर्थिक पक्ष को दूर करते अपनी दराज खोलकर कहा था कि जितने पैसे चाहिएं ले लो देवेंद्र लेकिन मेरा यह दोस्त किसी और से पैसे मांगने नहीं जायेगा ! असल में मैंने नवमी से ग्यारहवी़‌ तक मेडिकल ही रखा था और राजपाल मेरे तीन वर्ष तक सहपाठी रहे! फिर‌ मैं बीए करने लगा और वे अमृतसर से डाॅक्टर बन कर आये ! 
 तो  मित्रो ! नाटक के माध्यम से मैं डाॅ आत्मजीत के सम्पर्क में आया और‌ उनके पंजाबी नाटक में दिये योगदान को जान पाया ! मैंने उन्हें प्रसिद्ध लेखक मोहन राकेश की पत्नी अनिता राकेश की इंटरव्यू दिखाई, जो दिल्ली जाकर की थी और बरसों बाद मेरी पुस्तक 'यादों की धरोहर' का आधार‌ बनी ! 
खैर ! डाॅ आत्मजीत को इससे अपनी पत्रिका मंचन' के मोहन राकेश विशेषांक का आइडिया आया, जिसमें मेरी वही इंटरव्यू भी अनुवाद कर प्रकाशित की और यही नहीं मैने डाॅ आत्मजीत को सत्रह वर्ष से संभाले 'सारिका' का विशेषांक इस आग्रह के साथ दिया कि मुझे लौटा देंगे, विशेषांक तो आया पर 'सारिका' का अंक आज तक नहीं लौटा ! जैसे मैंने भी एक बार डाॅ चंद्र त्रिखा के निजी पुस्तकालय से 'अज्ञेय की प्रिय कहानियाँ' यह कहकर ले ली कि लौटा दूंगा पर मेरी ट्रांसफर हिसार हो गयी और यह मेरे साथ हिसार चली आई ! इसीलिए तो कहा जाता है कि गंगा में विसर्जित की गयीं अस्थियाँ और उधार दी गयीं किताबें कभी वापस नहीं आतीं ! तभी तो मोहन राकेश कहते थे कि  हम किसी से उनके घर की और कोई चीज़ उधार नहीं मांगते तो किताब ही क्यों उधार मांगते हो? यानी किताबें खरीद कर पढ़िए! 
बस, बाॅय आज की जय जय!