लड़की के लिए माहौल हमेशा खतरनाक होता है: मैत्रेयी पुष्पा 

'अलमा कबूतरी' व 'चाक' जैसे उपन्यासों से 'विवादित व बदनाम'  लेखिका के रूप में बहुचर्चित मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि लड़की के लिए माहौल हमेशा ही खतरनाक होता है ।

लड़की के लिए माहौल हमेशा खतरनाक होता है: मैत्रेयी पुष्पा 
मैत्रेयी पुष्पा।

-कमलेश भारतीय 
'अलमा कबूतरी' व 'चाक' जैसे उपन्यासों से 'विवादित व बदनाम'  लेखिका के रूप में बहुचर्चित मैत्रेयी पुष्पा ने कहा कि लड़की के लिए माहौल हमेशा ही खतरनाक होता है । मुझे भी अपने बचपन में ऐसे खतरनाक माहौल में रह कर पढ़ाई लिखाई पूरी करनी पड़ी क्योंकि डेढ़ साल की थी जब पिता का निधन हो गया । बाबा यानी मेरे दादा अपाहिज थे और मां कम पढ़ी लिखी महिला । खेती थी । और मेरी प्राइमरी तक की शिक्षा गांव में ही हुई । गांव में लड़की के रूप में पढ़ने लिखने के दौरान बहुत ही असहज अनुभव हुए । यहां तक कि सहपाठियों से कम और शिक्षकों व प्रिंसिपल ने ज्यादा परेशान किया और लड़कों ने तीन दिन तक मेरे हक में स्ट्राइक की । जब प्रिंसिपल ने माफी मांगी तब जाकर मामला खत्म हुआ और स्कूल पटरी पर लौटा ।
मूल रूप से मैत्रेयी पुष्पा उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ के निकट गांव शिकुरा की निवासी हैं । एक साल कन्या गुरुकुल में भी पढ़ाई की , वहां संस्कृत होने से इनकी संस्कृत अच्छी हो गयी । हमारा   अढ़ाई लोगों का परिवार था । प्राइमरी के बाद इग्लास कस्बे में आठवीं तक पढ़ी । इग्लास में प्रसिद्ध व्यंग्य कवि अशोक चक्रधर का ननिहाल है । जब मेरे दादा गुजर गये और मां ग्राम सेविका की नौकरी पर चली गयीं तो घर में अकेली रह कर पढ़ाई पूरी की ।  फिर मां ने आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ में किसी जानकार के घर रखा लेकिन एक साल में ही मैंने मां को घर के वातावरण को देखकर कह दिया कि यहां नहीं रहूंगी । फिर मां ने दूसरे घर रख दिया और वे लोग बहुत अच्छे थे । बहुत अच्छे वातावरण में मैंने फर्स्ट डिविजन में दसवीं कर ली ।  मेरी मां बेचारी बिल्ली की तरह मुझे अलग अलग घरों में रख रही थी । दसवीं करते ही मां को कह दिया कि इस तरह लोगों के घरों में नहीं रहूंगी , मुझे अपने साथ रखो । फिर मां मुझे झांसी के निकट चिरगांव ले गयीं अपने साथ । 
-बीए कहां से की ?
-बुंदेलखंड से । वहीं से बीए और एम ए हिंदी की । बीए में हिंदी , अंग्रेजी , फिलासफी और संस्कृत थे मेरे विषय । 
-साहित्य में रूचि कब और कैसे ?
-एक प्रेमपत्र से ।
-कैसे ?
-जब ग्यारहवीं कक्षा में थी तो एक लड़के ने मुझे प्रेमपत्र दिया । वह सीनियर था । मैच्योर भी । वह प्रेमपत्र   असल में एक बहुत प्यारी सी कविता थी तो मैंने सोचा वह कविता लिख सकता है तो मैं क्यों नहीं ? बस । उल्टी सीधी कविता लिखनी शुरू कर दी काॅपी के पिछले पन्नों पर । वह लड़का मेरी कविता देखकर बताता ऐसा नहीं , ऐसा लिखो । इस तरह लड़के से तो नहीं , साहित्य से प्रेम हो गया । 
-आगे क्या हुआ ?
-बुंदेलखंड में बहुत अच्छे हिंदी शिक्षक मिले भगवान् दास माहोर । वे स्वतंत्रता सेनानी भी थे और मुझे बहुत  स्नेह देते थे । उन्होंने प्रेरित किया और यह भी कि बहादुर लड़की बनो , साहसी बनो । डरो नहीं किसी से । काॅलेज में बच्चन , मैथिलीप्रसाद गुप्त , नीरज और वृंदावन लाल वर्मा आते रहते थे । इन्हें सुनती और साहित्य के प्रति अनुराग बढ़ा ।
-फिर शादी कब हुई ?
-यह भी मजेदार किस्सा है । जब एम ए में थी तो मां से कहा कि मेरी शादी हो जानी चाहिए । मां ने पूछा कोई लड़का है क्या? मैंने कहा नहीं है कोई । मां ने फिर कहा कि वो जो तुझे प्रेमपत्र लिखता है , उससे करवानी है शादी ? मैंने कहा कि नहीं मां । वह लड़का प्रेमपत्र तक ही ठीक है । मुझे किसी इंजीनियर या डाॅकटर से शादी करवानी है । 
-फिर ?
-मां ढूंढने लगी लेकिन एक अकेली बेटी । थोड़ी सी खेती । कोई भाई नहीं । दहेज दे सकने की हिम्मत नहीं । आखिरकार डाॅ आर सी शर्मा के घर मां चली गयी किसी के बताने पर । सबसे मज़ेदार बात क्या कि मेरी मां जन्मपत्री लेकर नहीं बल्कि मेरी मार्क्सशीट लेकर जाती थी । देखिए मेरी बेटी पढ़ी लिखी है । आखिर इन डाॅ आर सी शर्मा ने रिश्ता स्वीकार कर लिया बिना देखे । मेरी मां ने कहा कि मैं तो सांवली हूं लेकिन मेरी बेटी साँवली नहीं हैं । इस पर उन्होंने कह दिया कि आप भी सुन्दर हैं और मां ने घर आकर कहा कि लाली (बेटी) उन्होंने तो मुझे ही पसंद कर लिया । खैर । हमारी शादी हो गयी सन् 1963, दिसम्बर में । पर मेरे भावी पति ने यह भी कहा मां से कि मेरे पिता से बात न कीजिएगा क्योंकि वे दहेज मांगेंगे और मुझे लड़की पसंद है , दहेज नहीं । चित्रा मुद्गल ने मेरी यह बात सुनकर कहा था कि यदि सब लड़के ऐसे हो जायें तो दहेज कहां रहे ?
-आगे परिवार ?
-तीन बेटियां हुईं हमारे । गांव के लिहाज से बड़े लांछन लगे । पर मैंने इसे चुनौती के रूप में लिया । तीनों बेटियों को डाॅकटर बनाया । दो तो अपने पतियों के साथ एम्स में डाॅकटर हैं तो तीसरी नोएडा में आई सेंटर चलाती है । नम्रता हमारे साथ ही ऊपर की मंजिल पर रहती है कि मां मैं ही आपका बेटा हूं । 
-फिर साहित्य कब लिखा ?
-मैंने अपने पति को कहा कि मुझे गिफ्ट दीजिए बल्कि किताबें दीजिए ।
-बेटियों के जन्म के पच्चीस साल बाद । जब इन्हें योग्य डाॅक्टर बना दिया । 
-साहित्य में कैसा रहा सफर ?
-शुरू में कहानियां लौटती रहीं और मैंने इनको समझ बढ़ने पर उपन्यासों में रच दिया । 
-कितने उपन्यास हैं ?
-पूरे बारह । पांच कथा संग्रह भी हैं । जैसे बताया कि 'चाक' और 'अलमा कबूतरी' ने बदनाम व विवादित रचनाकार बनाया तो 'इदन मम' ने शालीन रचनाकार । राजेंद्र यादव मेरे विवादास्पद होने से बहुत खुश होते थे और मुझे डाक्टरनी कहते थे । राजेंद्र यादव जी को विवाद में रहना बहुत अच्छा लगता था ।
-कौन रचनाकार पसंद हैं ?
-फणीश्वरनाथ रेणु और उनको फाॅलो भी करती हूं लेखन में । अनुकरण भी करती हूं । 
-हिदी अकादमी, दिल्ली की उपाध्यक्ष भी रहीं तीन बात तो क्या कर पाईं ?
-पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती को छोटी से भव्य बनाया और लेखकों का पारिश्रमिक बढ़ाया ।
-ये जो स्त्री विमर्श , दलित विमर्श आदि चले इससे हिंदी साहित्य का कितना भला हुआ ?
-मैं विमर्शों में शामिल नहीं थी । क्या किसी ने महादेवी को देखा ? कृष्णा सोबती को देखा या समझा ? मनमानी करेंगे ऐसा कोई विमर्श नहीं होता । धीरे धीरे सब बदलता है । ऐसे तोड़कर नहीं । मोहब्बत प्रेम से भी बात हो सकती है । ऐसी वीरांगनाएं बनने की क्या जरूरत है ? 
-नये रचनाकारों को कोई गुरुमंत्र ?
-नहीं । ऐसी गुरु नहीं हूं मैं । फिर भी लिखो तो हिम्मत से लिखो । हम समाज को क्या बेहतर दे सकते हैं ? इस पर सोचकर लिखो । नयी पीढ़ी को जल्दी जल्दी चर्चित होने का चस्का लग गया है , जो पहले नहीं था । बिना खाक छाने असली तत्त्व हाथ नहीं लगता । मेहनत नहीं है अब । साहित्य धीरे धीरे असर दिखाता है । 
हमारी शुभकामनाएं मैत्रेयी पुष्पा को ।