अकाली-भाजपा गठबंधन पर छाये अविश्वास के बादल

गठजोड़ को वर्तमान स्थिति में धकेलने के लिए दोनों दलों की मौजूदा लीडरशिप जिम्मेवार

अकाली-भाजपा गठबंधन पर छाये अविश्वास के बादल
दर्शन सिंह शंकर, जिला लोक संपर्क अधिकारी (रिटायर्ड)।

दर्शन सिंह शंकर द्वारा।

पिछले 23 वर्षों से पंजाब में चल रहे अकाली-भाजपा गठबंधन में मतभेदों की एक झलक स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। बेशक, अकाली दल इसे अटूट रिश्ता बता रहा है, लेकिन कुछ समय से भाजपा का रवैया इसके प्रति नेगेटिव लग रहा है। इस बात का सन्देश भाजपा के कई राज्य स्तरीय नेताओं द्वारा खुल कर दिया गया है। अमृतसर में अकाली दल की रैली में, गठबंधन के मुख्य निर्माता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने धर्म और घृणा की राजनीति पर चिंता व्यक्त करके मोदी सरकार के प्रति असंतोष व्यक्त किया। हालांकि, यह गठबंधन सिद्धांतों के बजाय राजनीतिक हितों पर आधारित है। क्योंकि दोनों दल अकेले राज्य के भीतर सत्ता में आने की स्थिति में नहीं हैं। गठजोड़ को वर्तमान स्थिति में धकेलने के लिए दोनों दलों की मौजूदा लीडरशिप का अड़ियल व तानाशाही व्यवहार कहा जा सकता है।  भविष्य में गठजोड़ के अंदर अविश्वाश पंजाब में नया राजनितिक समीकरण पैदा होने का संकेत देता है। 

पृष्ठभूमि:
राज्य में सिख और हिंदू आबादी के अनुपात को देखते हुए सभी संघर्षों के बावजूद, गठबंधन लगभग 23 साल पहले अस्तित्व में आया, जिस में अकाली दल ने  बड़े और भाजपा ने छोटे भाई की भूमिका को स्वीकार किया। समय-समय पर, जब भी गठबंधन में कड़वाहट आई, कुशल नेतृत्व ने इसे मिल बैठ कर सुलझा लिया। बड़े बादल ने हमेशा तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं वाजपेयी और आडवाणी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा, जिसकी  मौजूदा नेतृत्व में एक चिंगारी भी दिखाई नहीं देती है। गठबंधन ने एक साथ एक दर्जन से अधिक लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़े। केंद्र और राज्य में पूर्णकालिक सरकारें भी चलाई गईं।

तनाव की शुरुआत:
सही दिशा में चल रहे गठजोड़ के भीतर तनाव उस समय उत्पन्न हुआ जब बड़े बादल द्वारा  2009 में भाजपा नेताओं की उपेक्षा करके सुखबीर बादल को उप मुख्यमंत्री नियुक्त किया, लेकिन भाजपा नेताओं की कमजोर स्थिति और केंद्रीय नेताओं के भय से कड़वा घूँट पी गए और दस साल तक सत्ता का आनंद भोगते रहे और सुखबीर बादल की तूती बोलती रही। फिर 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान, पूरे देश में मोदी की अंधेरी चली, लेकिन पंजाब में सरकार के प्रति गुस्से के कारण ठुस्स हो कर रह गई। भाजपा कदावर नेता अरुण जेटली को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन की करारी  हार हुई और पहली बार गठजोड़ विपक्ष का दर्जा भी हासिल नहीं कर सका।  भाजपा के कईनेताओं ने अपने खराब प्रदर्शन के लिए अकाली नेताओं की बदनामी  को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया और भाजपा का अकाली दल के प्रति रवैया  दिनों प्रतिदिन रूखा होता चला गया। अकाली दल का नेतृत्व गठबंधन को मजबूरीवश नाखून-मांस का रिश्ता बताती चली आ रही है।पुलवामा आतंकी हमले के बाद बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर 2019 के  लोकसभा चुनावों में दोबारा एक बार मोदी की तेज अंधेरी पूरे देश में चली, लेकिन पंजाब के भीतर इसकी हवा निकल गई और अकाली दल दस में से सुखबीर और हरसिमरत वाली दो सीटें जीत सका। केंद्र में, हरसिमरत बादल फिर से मंत्री तो बन गयीं , लेकिन मोदी और अमित शाह का अकाली दल के प्रति रवैया तल्ख़ होता गया। केंद्र की मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के दौरान पंजाब को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया, यहां तक कि अकाली दल की प्रतिष्ठा का सवाल बने पानी के मुद्दे पर मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हरयाणा का पक्ष लिया, लेकिन बेबस अकाली दल कड़वा घूँट भर कर रह गया। हरियाणा विधानसभा में अकाली दल को एक और झटका देते हुए  भाजपा ने एक भी सीट ना देकर अकालियों को अपमानित किया और इनका एकमात्र विधायक भी भाजपा में शामिल करके जख्मों पर नमक छिड़क दिया। दिल्ली विधान सभा चुनावों के दौरान भी, अकाली दल को किनारे करते हुए एक भी सीट देने से स्पष्ट इंकार करके अपमानित किया और चुनाव अभियान से अकालियों को दूर रख कर गठजोड़ पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिए। बौखलाए हुए अकाली फिर भी इसे नाखून - मांस रिश्ता बता रहे हैं।पंजाब भाजपा के नवनियुक्त अध्यक्ष अश्विनी शर्मा की ताजपोशी के समय सीनियर नेता मास्टर मोहन लाल ने सम्बोधित करते हुए अकाली दल से छुटकारा पाकर अकेले 2022 के विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि अगर भाजपा हिमाचल और हरियाणा में सरकार बना सकती है तो पंजाब में क्यों नहीं? इसे बाद में भाजपा के वरिष्ठ नेता मनरंजन कालिया द्वारा समर्थित किया गया और मदन मोहन मित्तल ने मौजूदा स्थिति में छोटे के बजाय बड़े भाई की भूमिका का दावा किया। इससे अकाली दल भी चौकन्ना हो गया लगता है।दिल्ली में भाजपा द्वारा एक भी सीट ना मिलने के कारण अकाली दल द्वारा नागरिक संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का विरोध किया, बेशक बाद में भाजपा को समर्थन दिया। लेकिन भाजपा द्वारा दिल्ली के चुनाव के दौरान अकाली दल को किनारे रखना भी गठजोड़ की अहमियत कम करने का संकेत माना जा रहा है।अकाली दल में बादलों की तानाशाही बताते हुए ढींडसा, ब्रह्मपुरा, सेखवां व अन्य पुराने अकाली पार्टी को बड़ी क्षति लगा रहे हैं और ढींडसा का भाजपा के वरिष्ठ नेतृत्व में भी अच्छा अक्स है, जिसके कारण भाजपा अभी  'वेट एंड वाच' के मूड में  लगती है। बेशक, पंजाब के नए भाजपा अध्यक्ष वर्तमान में गठबंधन बनाए रखने पर बयान दे रहे हैं।अब बड़े बादल की तल्ख़ टिप्पणी अकाली  दल की सोची समझी रणनीति का हिस्सा लगती है। ऐसी भी चर्चा है कि गठजोड़ टूटने की स्थिति में अकाली दल पुरानी सहयोगी बहुजन समाज पार्टी के साथ गठजोड़ की संभावनाएं तलाश सकती है। कुछ भी हो गठजोड़ के दोनों साझेदार अलग होकर चुनाव लड़ने के नफ़े-नुक्सान के बारे में अंदरखाते विचार करने में व्यस्त लगते हैं। दिल्ली में भाजपा की केजरीवाल के हाथों शर्मनाक हार से अकाली दल को थोड़ी राहत अवश्य मिली है। दूसरी ओर, दिल्ली में `आप' की जीत से पंजाब में आम आदमी पार्टी भारी  उत्साह में है।गठजोड़ के भविष्य का निश्चित ही पंजाब की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ना लाज़मी है।